पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/८८९

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पाय सकल करत भगवान श्रीकृष्णचंद्र की आज्ञानुसार पांडवों ने पुरुषोत्तम मास का व्रत किया और विपत्ति से छूटकर भगवान की कृपा से उत्तरोतर अनेक शुभफल पाया ! नारद जी से भगवान नारायण बोले -- पूर्व काल में सत्ययुग में हैहय देश का राजा दृढ़धन्वा था ! पुष्करावर्त नगर उसकी राजधानी थी और विदर्भ नगर के राजा की कन्या गुणसुंदरी उसकी रानी थी । चारुमती कन्या और चित्रवाक, चित्रबाहु. मणिमान और चित्रकुंडल यह चार पुत्र थे । इस राजा का पुण्य प्रताप ऐश्वर्य सब महान् अखंडित था । एक दिन राजा को अकस्मात चिता हुई कि किस पुण्य से हमको ऐसा अखंड ऐश्वर्य मिला । इसी चिंता में राजा शिकार खेलता हुआ एक मृग के पीछे गहन वन में घुस गया और एक वृक्ष के नीचे थककर विश्राम करने लगा. तो वहाँ एक सुग्गे को यह पढ़ते हुए सुना जगत में सुख न तत्व विचार । असत विषय भूल्यो फिरत किमि लहिहे भव पार ।।३।। सुग्गे को मनुष्य की बोली बोलते और परम तत्व के पूर्वोक्त वाक्य को पढ़ते सुनकर राजा को अत्यंत आश्चर्य और मोह हुआ । यहाँ तक कि घर आकर काम काज छोड़कर रात दिन उसी सुग्गे का वाक्य सोचने लगा । एक दिन भगवान वाल्मीकि इस राजा के घर पर आए और राजा ने बड़ी नम्रता से मुग्गे के वाक्य का आशय पूछा । वाल्मीकि जी ध्यान करके बोले - पूर्व जन्म में आप ताम्रपणी के निकट सुदेव नामक ब्राह्मण थे। अपनी स्त्री गौतमी सहित के हेतु आपने भगवान की बड़ी तपस्या किया । यद्यपि सुदेव के सात जन्म में भी चुत्र नहीं लिखा था तथापि भगवान के वाक्य से गरुड़जी ने सुदेव को पुत्र का वरदान दिया । सुदेव ने शुकदेव नामक एक सर्वगुण सम्पन्न पुत्र पाया परतु देवल ऋषि के कहे हुए फल के अनुसार बारह वर्ष की अवस्था में वह बावली में इब कर मर गया । सुदेव पुत्र-शोक से अत्यंत व्याकुल होकर रोने लगा और यहाँ तक कि संयोग से उस समय आया हुआ पुरुषोत्तम मास उसने बिना अन्न जल के बिता दिया । इस व्रत से भगवान प्रसन्न होकर प्रगट हुए और कहा कि तुमने हठ करके पुत्र का वरदान लिया था, इससे धनुश्शर्मा ब्राहमण की भाँति अंत में दुख पाया । अब तुम्हारा पुत्र जो जायगा और तुम बारह हजार वर्ष पुत्र सहित इस शरीर मे रहकर अंत में सुधन्त्रा नामक राजा होगे और लार पुत्र, एक कन्या और राज्य का अखंड ऐश्वर्य पाओगे । सो उसी पुण्य से आपने यह राज्य और ऐश्वर्य पाया है। वह सुग्गा आपका पूर्व जन्म का शुकदेव नामक पुत्र था, जो आप को राज-काज में मग्न देखकर आपके हित के हेतु सुग्गे के रूप में आपको चितावनी का शुभ वाक्य सुना गया । वाल्मीकि जी से अपने पूर्व जन्म का चरित्र और पुरुषोत्तम का विचित्र माहात्म्य सुनकर सुधन्वा ने उनसे पुरुषोत्त मास की विधि पूछौं । ऋषि बोले --पुरुषोत्तम मास में ब्राह्म मुहूर्त में उठकर शौव करके और दंत धावन करके तीर्थ में स्नान करे फिर गोपी चंदन का ऊर्ध्व पुंड और शेष हो तो त्रिपुंड तिलक लगाकर भुजापर शस्त्र चक्र का चिन्ह लगाकर संध्या करे । फिर पवित्र स्थान में चावला का अष्ट दल बनाकर उस पर सोने चाँदी तामे पीतल वा मिट्टी का कलश रक्खे, कलश में इन मंत्रों से जल भरे - कालशस्य मुखे विष्णु : कठे रुद्र: समास्थित : । मूले तत्र स्थितो ब्रह्मा मध्ये मातृगणा : स्मृताः ।। कुक्षौतु सागर: सों सप्तासीपा यसुन्धरा । ग्वेने अर्थ यजुर्वेदस्साभवेदो ध्यपर्वण:। अंगेस्तु सहिताः सर्वे कलश हि समाश्रिताः ।। गंगा गोदावरी वेव कारी सरस्वती ।। आयान्तु सम शांत्यर्थम् दुरितक्षयकारकाः।। इस मंत्र से कलश की प्रतिष्ठा करके, कलश का पूजन करके एक तदुल पूर्णपात्र कलश के ऊपर रक्खे । उस पर पीला कपड़ा बिछा कर 'श्री राधिका सहित भगवान की सोने की मूर्ति स्थापन करके पुरुषोत्तम जीज और नीचे लिखे हुए मंत्रों से प्राणप्रतिष्ठा करे । ॐ तनिश्री : परसम्पदं सदा पश्यन्ति सुरय : दिवोव चक्षुराततं स्वाहा ॐ अस्यै प्राणा: प्रतिष्ठन्तु अस्यै प्राणा : क्षरन्तु अस्यै देवत्व संख्याये च Cekk461 पुरुषोत्तम भासविधान ८५