पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/८९२

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यशेश्वराय देवाय तथा यज्ञोद्भवाय च । यज्ञानांपतयेनाथ गोविन्दाय नमोनमः ।।३१।। इति मंत्र पुष्पन विश्वेश्वराय विश्वाय तथा विशयोदभवाय च । विश्वस्थपतये तुभ्य गोपिन्दाय नमोनम : ।।३२।। इति नमस्कारान् मंत्रहीनेति मन्त्रण क्षमाप्य पुरुषोत्तमम् । स्वाहांतेनाम मत्रैश्च तिल होमो दिनेदिने ।।३।। इति पूजन करके हविष्यान्न भोजन करे । मांस, मद्य और मादक वस्तु, द्विदल, तैल पक्य बड़ी. उरद, मसूर इत्यादि वस्तु न खाय ! भाव-दुष्ट, क्रिया-दुष्ट और शब्द-दुष्ट वस्तु का वर्जन करे । पराये का द्रोह, अन्न, स्त्री और धन से दूर रहे | बिना तीर्थ परदेश न जाय, निंदा न करे, जंभीरी नीबू बासी अन्न, ब्राहमण का बेचा हुआ रस, भूमि से उत्पन्न लवण, ताम्रपात्र में रक्खा हुआ गव्य, चमड़े के वर्तन का जल, ये सब मास के तुल्य हैं । रजस्वला, म्लेच्छ, पतित, व्रात्य और देव-ब्राह्मण-द्रोही से पुरुषोत्तम में संबंध न रखें । इनका और कौन का, सूतकवाले का छुआ अन्न और दो बेर पकाया हुआ तथा जला हुआ अन्न न खाय ! प्रतिपदा से पूर्णिमा तक कुषमाड आदेक का वर्जन करे और जो वस्तु छोड़े वह वस्तु ब्राह्मण को दान दे । केवल दूध पीकर वा घी पीकर फलाहार करके या अयाचित खाकर उपवास, एक नक्त वा नक्त वत जो बन पड़े और बिना कष्ट निवहै वह करे । शालिग्नान का पूषन करै, श्रीमद्भागवत सुने और सांयकाल को दीपदान करे । राजा दृढ़धन्या ने वाल्मीकि ऋषि से दीपदान का माहात्म्य पूछा, इस पर वाल्मीकि जी ने कहा --प्राचीन काल में सौभाग्य नगर में एक चित्रमानु नाम राजा था और चंद्रकला नामक उसकी रानी थी । यह राजा धन धान्य सब प्रकार से सुखी था । एक दिन इसके यहाँ अगस्त ऋषि आये और राजा ने अपने पूर्व जन्म का वृत्तांत पूछा । मुनि ने कहा ---- तुम बड़े दुष्ट मणिग्रीव नाम शूद्र थे और यह रानी तुम्हारी पतिव्रता स्त्री थी । कुकर्म में सब धन खोकर शिकार खेलकर अपनी जीविका करते थे । एक दिन घोर वन में मार्ग भूले हुए उग्रदेव नामक थके ब्राह्मण की तुम लोगों ने बड़ी सेवा किया और उनसे अपना दु:ख निवेदन किया । इससे प्रसन्न होकर ऋषि ने पुरुषोत्तम मास में दीपदान करने का उपदेश किया और मणिग्रीव ने बन में इंगुदी के तेल से दीपदान किया, जिससे भगवान ने प्रसन्न होकर तुमको वरदान दिया और इस जन्म में तुमको सब सुख मिले । दीपदान का माहात्म्य सुनकर दृढ्धन्या ने पुरुषोत्तम के उद्यापन की विधि पूछी । वाल्मीकि जी ने उत्तर दिया कि कृष्णपक्ष की चतुर्दशी वा नौमी या अष्टमी को उद्यापन करना । तीस सपत्नीक ब्राह्मण को न्यौता देना और पंचधान्य का सर्वतोभद्र बनाकर चारों दिशा में चार कलशों पर वासुदेव, सकर्षण, प्रद्युम्न और अनिरुद्ध का स्थापन करना । बीच में नित्य पूजित श्री राधिका सहित श्री पुरुषोत्तम का स्थापन करना । एक वैष्णव ब्राह्मण को आचार्य और चार ब्राह्मणों को जप की वरणी देकर चारों दिशा में दीपदान करके चतुयूंह का जप करना और भगवान की पूजा करना । पंचरत्न और फल से भगवान को भक्तिपूर्वक अर्घ्य देना । अर्घ्य मंत्र- देवदेव नमस्तुभ्यम्पुराणपुरुषोत्तम । गृहाणध्यम्मयादत सदितो हरे।। वन्दे नवघनश्याम द्विभुज मुस्लीपरम् । पीताम्बरधर देव सरा पुरुषोत्तमम् ।। फिर तिल से श्री राधिका सहित पुरुषोत्तमायनम : स्वाहा इस मंत्र से होम करना और तर्पण मार्जन के पीछे भगवान का नीराजन करना । राधया मारतेन्दु समग्र ८४८