पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/८९३

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सुन्दरम् ।। मत्र नीराजयामि देवेशमिन्दीवरदलच्छविम । राधिकारमणप्रेमणा कोटिकन्दर्पसुन्दरम् ।। फिर क्षण भर भगवान का ध्यान करना --- अन्तज्योतिरनन्तरन्तरचिते सिंहासने संस्थितम । वंशीनादविमोहित व्रजवधू वंदावने ध्यायेद्राधिकया सकौस्तुभमणि प्रद्योतितोरस्थलम। राजनकिरीटकुण्डलधर प्रत्या पीताम्बरम् ।। फिर पुष्पांजलि देना और प्रणाम करना । मंत्र नव्यघनश्याम पीतवाससमच्युतम । श्रीवत्सभासितोरस्क राधिकासहित हरिम ।। फिर ब्रह्मा को पूर्णपात्र दान करके गोदान करना और घृतपात्र, तिलपात्र, उमा महेश्वर, सोहागपिटारी, वस्त्र, पद इत्यादि दान करना और जो श्रीभ भागवत करे तो बड़ा ही पुण्य है । पुरुषोत्तम मास में श्री भागवत दान की समता अन्य दान नहीं कर सकते । और तीस कांसे की थाली में तीस तीस पूआ रखकर ब्राह्मणों को दान देना । और भी अन्न दानादि जो बन पड़े वह देना । अमावस्या की रात को जागरण करके सबेरे पूजा पीठ और सोने की मूर्ति दान देना । मंत्र- श्रीकष्ण जगदाधार जगदानन्ददायक ऐहिकामुष्मिकान्कामान् निखिलान् पूरयाशु मे ।।१।। मंत्रहीन क्रियाहीनम् विधिहीनम् जनार्दन । वृतं सम्पूर्णतां यातु त्वत्प्रसादादयानिधे ।।२।। फिर जो वस्तु का त्याग किया हो, उसका यथाक्रम दान करना । यथा --नक्त व्रत में भोजन, अयाचित में स्वर्णदान, धात्री स्नान में दधि, फल न खाया होय तो फल, तेल छोड़ा होय तो धी. घी छोड़ा होय तो दूध, अन्न छोड़ा होय तो अन्न, भूमि-शयन लिया होय तो सेब, पत्र भोजन किया होय तो धी-चीनी, मौन लिया होय तो घण्टा, तिल और सोना । क्षौर न बनवाया हो तो दर्पण, जूता छोड़ा होय तो जूता, नमक छोड़ा होय तो घी, गुड़, तेल और नमक, दीपदान का नेम लिया होय तो ताँबे का दिया और सोने की बत्ती और एकान्तर उपवास किया होय तो यस्त्र सहित आठ कुंभ दान करे । पुरुषोत्तम मास में एक अन्न भोजन करने का बड़ा पुण्य है । वाल्मीकि जी से पूर्व जन्म का वृत्तांत और पुरुषोत्तम-माहात्म्य सुनकर राजा स्त्री सहित वन में जाकर तपस्या करके अंत में गोलोक में गया । नारायण नारद जी से कहते है कि कंदर्प नामक ब्राह्मण बड़ा पापी था, जन्म भर में केवल एक वैश्य को पुरुषोत्तम की पूजा करते दर्शन किया था और कोई पुण्य नहीं किया था । इसी पाप से एक जन्म में प्रेत और दूसरे में वह बंदर हुआ परंतु पुरुषोत्तम के पूजा के पुण्य से इन्द्रनिर्मित मृगतीर्थ पर उसका निवास हुआ और किसी समय पुरुषोत्तम मास में एक बेर उसने दुःखित होकर तीन दिन तक कुछ न खाया, न पीया और उसी तीर्थ पर प्राण त्याग किया और पुरुषोत्तम के प्रभाव से अंत में गोलोक गया । नारद जी के प्रश्न पर श्रीनारायण दिनचर्या कहते हैं। प्रात:काल की क्रिया समाप्त करके पंचभूत पित बलि देकर अतिथि को भोजन कराकर दो वस्त्र से अकेले एक पात्र में पूर्वा पर आचमन संयुक्त भोजन करना । भोजन के पीछे पान स्वाकर भगवान के ध्यानपूर्वक भक्तिशास्त्र का विचार करना । तीसरे पहर धर्माविरुद्ध व्यवहार करना । साँझ को तीर्थ पर देहशुद्धि पूर्वक संध्या करके दीपदान करके भगवान का स्मरण करके शयन करना । इसके पीछे नारायण ने पतिव्रता के धर्म और पुरुषोत्तम की विशेष महिमा कहा । और विधान किया कि--मंत्र- KAR MORE पुरुषोत्तम मासविधान ८४९