पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/८९६

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46 किया)। चकार से अनुपात, रोमांद और वाणीस्तंभादिक भक्ति का स्वरूप कहा । न क्रियाकृत्यनपेक्षणाज्ज्ञानवत् ।। ७ ।। और वह भक्ति ज्ञान की मौत कृपा करने वाले के आधीन नहीं है ।। ७ ।। अर्थात् भक्ति अपने साधन को नहीं हे केवल उसकी कृपा से मिलती है इस से भक्ति की बहुमूल्यता दिखाई। अतएव फलानन्त्यम् ।।८।। इसी से इस के फलों का अंत नहीं है ।। ८ ।। क्योंकि मनुष्य के सब साधन क्षीयमाण और ईश्वर की कृपा अक्षया है 1 तद्वतः यपत्तिशब्दाच्च न ज्ञानमितरप्रपत्तिवत् ।। ५ ।। क्योंकि ज्ञान वालोंको शरणागत है और बिना शान भी इतर प्रपत्ति होती है ।। ९ ।। क्योंकि श्रीमुख से कहा है कि बहुत जन्मों के पीछे ज्ञानी मेरे शरण आता है तो इससे ज्ञान का साधन मक्ति फलरूप है यह प्रगट किया और बिना ज्ञान भी भक्ति मिलती है इस से उसकी विशेषता दिखाई ! इति प्रथमाहिनक । सा मुख्येतरापेक्षितत्वात् ।। १० ।। सो भक्ति मुख्य है क्योंकि इतर ज्ञान योगादिकों में भी इसकी अपेक्षा रहती है ।। १० ।। तो इस से कोरे ज्ञान से मोक्ष मिलता है इसका खंडन किया, क्योंकि जब भक्ति की उसमें अपेक्षा रही तो वह स्वतः मुक्तिदाता न ठहरा इस से मक्ति ही मुख्य ठहरी । प्रकरणाच्च ।। ११ ।। प्रकरण से भी ।। ११ ।। अर्थात् भक्ति गी है और ज्ञानादिक अंग हैं तो काम पूरा कोई अंग विशेष नहीं कर सकता और अंग अंगी के आधीन है. इस से भक्ति ही अमृत देनेवाली है ! ज्ञान उस का साधन मात्र दर्शनफलमिति चेन्न, तेल व्यवधानात् ।। १२ ।। दर्शन मात्र फल रूप है यह नहीं, क्योंकि उस से व्यवधान है ।। १२ ।। अर्थात् ज्ञान मात्र ही फल है यह नहीं है क्योंकि छांदोग्य श्रुति में पहिले ज्ञानियों का नाम लेकर फिर कहा है कि वह अर्थात् भक्तिमान स्वराड़ होता है तो पहिले ज्ञान को गौण करके भक्ति की मुख्यता घेद ने कही, इस से भक्ति ही परम साधन है। दुष्टत्वाच्च ।। १३।। और ऐसा ही देखा भी जाता है ।। १३ ।। क्योंकि यदि किसी स्त्री पर कोई मनुष्य रीझकर प्रीत करेगा तो पहिले पब वह जानेगा कि यह स्त्री सुंदर है तब प्रीति करेगा । प्रीति करके न जानेगा आर्थात् जानने का फल प्रीति है, प्रीति का फल जानना नहीं है । इससे अनेक मत जो ईश्वर-विषयक ज्ञान मात्र ही को परम पुरुषार्थ कहते हैं, इसका निराकरण किया । अतएव तदभाषाबल्लवीनां ।। १४ ।। इसी से ब्रज के श्रीगोपीपनों का विज्ञान के बिना मी मुक्ति पाना प्रत्यक्ष है ।। १४ ।। इस सुत्र से भक्ति की परम श्रेष्ठता दिखलाई क्योंकि श्रीगोपीचन को यद्यपि ब्रहमविषयक कुछ भी शन न था तथापि जो गति केवल प्रेम से श्री गोपीजन को मिली सो किसी को न मिली। भक्त्या जानातीति चेन्नामिक्षप्त्या साहाय्यात् ।। १५ ।। जो कहो मति से शान होता है सो नहीं, क्योंकि ज्ञान तो भक्ति का सहायक है ।। १५ ।। क्योंकि जब मनुष्य को ईश्वर-विषयक माहात्म्यज्ञान होगा तभी भक्ति में प्रवृत्ति होगी। प्रागुक्तंच ।। १६ ।। पहिले कहा भी है ।। १६ ।। अर्यात श्री गीताजी में अठारहवें अध्याय के चौवन श्लोक में आप ने श्रीमुख से कहा है कि हम भाष पाकर प्रसन्न आत्मा न कुछ सोचता है न कुछ कहता है, सब लोगों को समान दृष्टि से देखता हुआ मेरी भक्ति पाता है। एतेन विकल्पो ऽपि प्रत्युक्तः ।। १७ ।। इस से विकल्प भी निरस्त हुआ ।। १७ ।। अर्थात् ज्ञान के अगत्य निर्णय में जो कुछ संदेह था वह etik भारतेन्दु समग्र ८५२