पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/८९७

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ऊपर के भगवत् वाक्य से मिट गया और भक्ति का आगत्व निश्चय हुआ । देवभक्तिरितरस्मिन् साहचय्यात् ।। १८ ।। ईश्वर के अतिरिक्त देवताओं की भक्ति भी उस परा भक्ति के समान नहीं, क्योंकि जगत में उसके समान और भी भक्तियाँ हैं ।। १८ ।। जैसा लिखा है, जैसी देवता में भक्ति करनी वैसी गुरु में करनी तो इस सूत्र से अनन्य भक्ति स्थापन किया। योगस्तूभयार्थभपेक्षात् प्रयाजवत् ।। १९ ।। और योग तो वाजपेय यज्ञ में प्रयाज की भाँति भक्ति और ज्ञान दोनों का अंग है ।। १९ ।। इससे योग की अंगांगता दिखलायी। गोण्या तु समाधिसिदिः ।। २० ।। गौणी भक्ति से तो समाधि की सिद्धि होती है ।। २० ।। इस से परा भक्ति की अपेक्षा इसकी महागौणता सिद्ध हुई। हेयारागत्वादितिचेन्नोत्तमास्पदत्वात् संगवत् ।। २१ ।। भक्ति राग है इससे (राग को कोई ऋषि दुःख-स्वरूप मानते हैं यह समझकर ) त्याग करने के योग्य है, यह नहीं क्योंकि इसका आशय उत्तम है संग की भांति ।। २१ ।। जैसा साधारण स्त्री-पुरुष के अनुराग में परस्पर वियोग का और संयोग छूट जाने का दुख होता है वैसा ईश्वर के अनुराग में नहीं होता क्योंकि संग दुखदाई है यह नियम नहीं है । सत्संग से अनेक सुख होते हैं वैसे ही ईश्वर का अनुराग परम सुख-स्वरूप है । तदेव कर्मिज्ञानियोगिभ्य आधिक्यात् ।। २२ ।। इससे भक्ति ही मुख्य है क्योंकि कर्म, ज्ञानी और योगियों से उसको अधिक कहा है ।। २२ ।। श्री गीता जी के छठवे अध्याय के ४६ और ४७ वें श्लोक में आपने श्रीमुख से कहा है कि तपस्वी, ज्ञानी और कर्मी से योगी अधिक हैं और योगियों में हमारे भक्त अधिक हैं प्रश्ननिरूपणाभ्यामाधिक्यसिद्धेः ।। २३ ।। यह अधिकता प्रश्नोत्तर से सिद्ध है ।। २३ ।। श्रीगीता जी में १२ वें अध्याय में अर्जुन ने पूछा है कि जो अक्षर की उपासना करते हैं और जो आप की भक्ति करते हैं उन में मुख्य कौन है । इसके उत्तर में आप ने कहा है कि जो मेरे भक्त हैं वे अधिक हैं । इस के बिना किसी अर्थवाद से भक्ति को परमोत्तमता सिद्ध हुई । नैव श्रद्धा तु साधारण्यात ।। २४ ।। श्रद्धा ही भक्ति नहीं है क्योंकि उस को साधारणता है ।। २8 ।। क्योंकि श्रद्धा कर्मादिकों में भी होती 1 तस्यां तत्वे चानवस्थानात् ।। २५ ।। क्योंकि श्रद्धा से भक्ति तत्व की एकता करने से अनवस्था होती है ।। २५ ।। अर्थात श्रद्धावान् भजन करता है, ऐसा लोग कहते है तो यदि अदा भक्ति एक ही होती तो अंग भाव से प्रयोग न होता । ब्रमकार्ड तु भक्तौतस्यानुज्ञानाय सामान्यात् ।। २६ ।। अतएव भक्ति प्रतिपादन के अर्थ उत्तरकांड की संज्ञा ब्रहमकांड से ज्ञानकांड की सामान्यता है ।। २६ ।। अर्थात् जो ज्ञान की मुख्यता होती तो 'अथातो ब्रहमजिज्ञासा' यह न कहते । इस से कंठरव से ज्ञान की अपेक्षा भक्ति की उत्तमता सिद्ध किया । इति २ आ. इति १ अध्याय ।। बुद्धिहेतुप्रवृतिराविशुदेरवघातवत् ।। २७ ।। बुद्धि के हेतुओ की प्रवृत्ति धान कटने की भाँति विशुद्धि तक है ।। २७ ।। बुद्धि अर्थात् ब्रहम-साक्षात्कार यद्यपि कृत्यनिष्पाद्य नहीं अर्थात आपने किए हुए उपायों से बाहर है तो भी उस के हेतु प्रवण मननादिकों का अनुष्ठान आवश्यक है जैसे जब तक सन छिलके बराबर न निकल जॉय, धान शुद न होगा । तदंगानाञ्च ।। २८ ।। उस के अंगों को भी ।। २८ ।। अर्थात् जैसे अषण-मननादिक की आवश्यकता है वैसे ही गुरु की सेवा आदि उस के उपायों को भी है। तामैश्वयंपदा काश्यपः परत्वात् ।। २९ ।। भक्ति वैजयंती ८५३