पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/८९९

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-MANAS भावश्यक है। चेत्यांचितानं तृतीयं ।। ४० ।। प्रकृति और महम में भेद नहीं है ।। ४० ।। अर्थात् इन में तृतीय भाव नहीं है दोनों एक हैं । इससे प्रकृति स्वतंत्र काई अलग है. इसका निषेध किया । युक्ती च संपरायात् ।। ४१॥ वियोग के पूर्व दोनों एक है ।।४।। अर्थात् सृष्टि होने के समय ब्रहम और प्रकृति अलग अलग होते है परंतु जाजर के भेद से नित्य इनका अनन्य संबंध है। शक्तित्वान्नानून पेरी ।। ४२ ।। शक्ति के कार्य हान से यह जगत मिथ्या नहीं है ।। ४२ ।। अर्थात जगत माया का कार्य है तो उसकी शक्ति भी सम्य है। प्रकृति केवल जमात्र तो है पर मिथ्या नहीं तत्परिशुद्विश्च गम्या लोकपिलगेभ्यः ।। ४३ ।। उस (भक्ति) परिशुद्धि गोत्र के (प्रम के) निन्हीं जानना ।। ४३ ।। अर्थात् अनु, रोमांच. गदगद इत्यादि स्थायी भाषा में किसको कितना प्रेम है यह प्रगट होता है। सम्मान बहुमान प्रीति विरहनरविचिकित्सा महिमख्याति तदर्थप्राणस्थान नीयतासर्वतभाषाप्रतिकागांन च स्मरणेभ्यो बाहुल्यात् ।। ४४ ।। सम्मान, बहमान, प्राति. विरह, इतरांवचिकित्सा अर्थात् गाग्रह पूर्वक दूसरे की अनपेक्षा, महिमा का कंधन, प्रियतमही के हेतु प्राणरक्षण तायता, सब उसके भाषों से देखना, अनानिकल्य अर्थात गणना इत्यादि प्रीति के लक्षण है।।४४ ।। सम्मान जैसा अर्जुन श. अहमान इक्ष्वाक का कि भगवान के नाम वा षों से जिन वस्तुग में संबंध था उनका भी आदर करता था. प्राति विर का. विरह श्रीगापाजन का. हार्चािकन्मा उगम का गर वादीपपासी की तथा निकत की. मरिभरात यम, भाष्म और त्र्याम की तार्थ प्राणास्थान ना के पाग या नमान जी की, तनायता जान्न का और परिचर पम् का, नाभाष श्री प्रहाणाः डा का. पाशिका- भाष्म तथा आदि शन्न म नारा उदया िमश्नों का ग्रान की चाय और क्षण जानन' । द्वपाश्यस्तु नेष ।। ४५ ।। द्वेषादिक सपमा नाय 11 शिशपाल इत्यादि के प्रकरण में किन म उन को मापा नाग हुई फिन्तु भगवान के मांगमा यात में भक्तों का तो पानिक हान ही नहीं । नाम्यशपात प्राभांजपि सा ।। ४३ ।। उसकं नापय शेष से भावनाग में भा वाह ।।४६ ।। मत्म्यानिक भवनाग में शिवाभि गण स्परुणा में संकर्षणादि यूहा में नथा नाचान प्राशि में भा परा भक्ति योग्य है। जन्मकविताचाशदान ।। ४७ ।। जन्मकों के जानन का मिट भी जन्म श स है ।।४७ ।। अर्थात जाम के जन्म कमां का जानना है बार फिर जन्म नहा माना किन्तु उसका पाता है । यह नागीना के ४ अध्याय के ९ नाक म का है तल नियं स्वशक्तिमानाभवान ।।४८ ।। उसके जन्म कानिक निय है क्योंकि केवल उसका निमात्र में अनेक प्रकार के दिवाई गरे है ।। ४८ ।। यह नाक और उसी प्रध्याय के छठे नाक में सिद्ध है। गरुय तस्थाहकारुण्य ।।५।। उसकं. उन्मादिकाम उसी की कराणा मूत्र है ।। ४ ।। प्रधान ईश्वर पधिन हा कं नहीं जन्म गाना कवन अपनी पार कृपा म नावा के उद्वार के हेतु अनक प्रकार के रूप धारण करना है। प्राणित्वान्नविभूतिष ।। १० ।। प्राणी होने से ब्राहमण राजनि भगविभूति में भक्ति सिदि देनवाली नहीं होती ।।1011 चतराजमवयोः प्रतिषचात् ।। ५ ।। द्रुत और राजसेवा के निषध में ।। ४१ ।। क्योंकि गीता जी में आपने श्रीमुख में राजा और नए का

भक्ति सूत्र वैजयंती ८५५ धर्मराज का