पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/९०

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1 प्रथम समागम को बदलो चकाएं लेत ।१०२ आओ प्राननाथ अब प्रान लागे मुरझान ।१०५ 'हरीचंद' एतोह पैं दरस दिखावै क्यों न याद करि पी की सब निरदय घाते आजु तरसत रैन दिना प्यासे प्रान पातकी । एरें बृजचंद तेरे मुख की चकोरी हूँ मैं कबहुँक बारिन में कुंजन निवारिन में एरे घनश्याम तेरे रूप की हौं चातकी ।९७| इत उत बेलिन को चौकि चितवत छौड़ कुल बेद तेरी चेरी भई चाह भरी कासन कपासन पै फिरत उदास कबौं गुरुजन परिजन लोक-लाज नासी हौं । पल्लवन बैठि बैठि दिन रितवत चातकी तृषित तुव रूप-सुधा हेत नित 'हरीचंद' बागन कछारन पहारन मैं पल पल दुसह वियोग दुख गाँसी हौं । जित तित परयौ गुनि नेह हितवत है । 'हरीचंद' एक ब्रत नेम प्रेम ही को लीनौ सूखे सूखे फूलन पै तरुगन मूलन पे रूप की तिहारे ब्रज-भूप हौं उपासी हौं । मालती-विरह भौरि दिन बितखत है ।१०२ ज्याय ले रे प्रानन बचाय लै लगाय कंठ काले परे कोस चलि चलि थक गये पाय एरे नंदलाल तेरी मोल लई दासी हौं ।९८ सुख के कसाले परे ताले परे नस के । तरसत नौन बिना सुने मोठे बैन तेरे रोय रोय नैनन में हाले परे जाले परे क्यों न तिन माँहि सुधा-बचन सुनाइ जाय । मदन के पाले परे प्रान पर-बस के । तेरे बिन मिले भाइ मांझरि सी देह प्रान 'हरीचंद' अंगह हवाले परे रोगन के राखि ले रे मेरो घाइ कंठ लपटाइ जाय । सोगन के भाले परे तन बल ससके । 'हरीचंद' बहुत भई न सहि जाय अब पगन छाले परे नाँधिबे को नाले परे हा हा निरमोही मेरे प्रानन बचाइ जाय । तऊ लाल लाले परे रावरे दरस के ।१०४ प्रीति निरवाहि दया जिय में बसाय आय थाकी गति अंगन की मौत पर गई मंद एरे निरदई नेक दरस दिखाय जाय ।९९ सूख झांझरी सी खै के देह लागी पिवरान । दोरि उठि प्यारी गरलावै गिरधारी किन बाबरी सी बुद्धि भई हंसी काहू छीन लई ऐसे पियह सों किन बोले कलबादिनी । सुख के समाज जित तित लागे दूर जान । देख्नु 'हरिचंद' ठीक दुपहर तेरे हेतु 'हरीचंद' रावरे-बिरह जग दुखमय आयो चलि दूर सो पियारो री प्रमादनी । भयो कछ और होनहार लागे दिखरान । तेरे गृह चलत न दुस सुख जान गिन्यौ नैन कम्हिलान लागे बैनह अथान लागे सीतल बनाउ ताहि सुरत सवादनी । मखमल भूभन भो गृह सीरी पास लाई लिवाय तमासो बताय दूरी भई तेरे यह धूप भई चाँदनी ।१०० भुराय के इतिका कुजन माहीं । धाय गही 'हरिचंद' जबै न धारि सकी सो कोऊ बिधि धीरहि । छपी वह चंदमुखी परछांहीं । अंक में लेत छल्यो छलकै बलकै सम्हारि सकी वा बियोग की पीरहिं । तब आप छोडाय के बांहीं । पे 'हरिचंद' महा कलकानि कहानी हाथन सो गहि नीबी कह्यो पिय नाहीं ज नाही जू नाहीं जू नाही ।१०६ सुनाऊं कहा बलबीरहि। जानि महा गुन रूप की रासि न नव कुजन बैठे पिया नंदलाल प्रान तज्यो चहैं याके सरीरहिं ।१०१ जू जानत है सब कोक-कला । साजि सेज रंग के महल मैं उमंग भरी दिन में तहाँ दुती भुराय के लाई पिय गर लागी काम-कसक मिटाएँ लेत । महा छबि-धाम नई अबला । ठानि विपरीत पूरी मैन के मसूसन सों जब धाय गही 'हरिचंद' पिया तब सुरत समर जयपत्रहिं लिखाएं लेत । बोली अजू तुम मोही छला । हरीचंद' उझकि उमकि रति गाढ़ी करि मोहि लाज लगै बलि पाँव परौं जोम भरि पियहि झकोरन हराएँ लेत । दिन ही हहा ऐसी न कीजै लला ।१०७, हे हरि बू बिछुरे तुम्हरे नहिं आखिर प्रान तजे दुख सों न मारतेन्दु समग्र ५०