पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/९०३

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नाही है किन्त भगवान के शक्ति ही का नाम माया है और वह भी जड़ प्रति अपनी सहज चेतन्यता अन्य अन्य Xh वाक्यों से और उसके उपक्रमोपसंहार से सिद्ध है। परां कृत्वैव सर्वेषा तथाहयाह ।। ८४ ।। (जो कहो कि गीता जी के वाक्यों की प्रवृत्ति तो ज्ञान, योग, सत्कर्म कीर्तनादि गौणी भक्ति इत्यादि अनेक विषयों पर है इस पर कहते हैं। कि श्रीमद्भगवद्गीता के वाक्यों की प्रवृत्ति तो परा भक्ति ही को कर के है ऐसा ही आप ने कहा भी है है ।। ८४ ।। क्योंकि जब आप ने "मनमना भव मदभक्तो माजी मां नमस्कृत । मामेवैष्यसि कौन्तेय प्रतिजाने प्रियोसि मे । । सर्वधर्मानपरित्यज्य मामेकं शरणं अज । । अहं त्या सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि माशुचः" ये दो वाक्य साधन, सिद्धा परा भक्ति ही के मुख्यता के हेतु कहे तो उस की श्रेष्ठता के हेतु पहिरणे आग्रहपूर्वक "सर्वगृहमनम भूयः ऋणु मे परम वचः" इससे अगले दोनों वाक्यों की महिमा कही और लोक में भी प्रसिद्ध है कि मनुष्य किसी को उपदेश करे परंतु आत में जो निचोड़ कर कहे वही बात मुख्य होती है। परंच गीता जी के कान का तो फल परा भक्ति ही है, यह आप ने "यद्वन्दं परम गुहय मद्भवतेभिशास्यति । । भक्ति मयि परां कृत्वा मामेषेष्यतासंशयः" इस वाक्य में कहा है । इस से और इन दो पक्षों के अलग होने से श्रीमगीता की प्रवृत्ति केवल भक्ति ही के हेतु है न ज्ञानकर्मादिशे 'ह" "त्या" के, यही सिद्ध हुन। द्वितीयाध्याय का द्वितीयाहिनक समाप्त हुआ। भानायनाद्वितीयमिदं कृतस्नस्य ततस्वरूपत्वात ।। ८५ ।। (भक्ति का उत्कपना और जोया के साधन कह कर अव सच्चिदानंदमय परमेश्वर और उस के सदेश से जगत और निर्देश में जीव और आनन्दमय श्री विग्रह इनका परस्पर संबंध दिखाते हैं। यह सब ईश्वर स्वरुप ही है इस से भजनीय थान भगवान से यह अलग नहीं है ।। ६५ ।। इस सूत्र से मिथ्यावाद निरस्त करते हैं क्योकि मिथ्यावादियों के मन में समार असत्य है परंतु यहाँ पर सूत्रकार भगवान शाण्डिल्य मुक्त कंठ से जगत की सन्यता प्रतिपादन करता है और इस जगत का विस्तार इस प्रकार से है कि सत्चिदानन्दमय ईश्वर को जब संसार की इच्छा हुई ना अपना सशसलट प्रपंच किया और निदश से चैतन्य प्रपंच (जीव सृष्टि) किया । जाच में आनन्दांश का निगभाव है क्योंकि बहुत काल से आनंदराशि भगवान से इन वियोग है। उस वियोग का न इनको स्मरण है न पियोग वन्य दर है, सो भगवान की कृपा से था उस के भक्तों की कृष्ण से उस के वियोग का स्मरण आना मानो उसके आनंदाश के भविभाव का कारण है और इसी से उसके एक अंश में म्चिन यह सब नित्य सत्य है। तत्त्छक्तिर्माया जडसामान्यात ।। ८६ ।। (मिथ्यावादी का निराकरण करवाया का निराकरण कर कि माया स्वतंत्र कोई वरूत्वंतर स्वतंत्र शक्तिवान निरस्त हुआ । ब्यापकत्वाद्वयाप्यानाम ।।७।। (सदेश और विदेश में आनंदाश व्याप्त है इस से परस्पर इन में ज्याप्य ज्यापक भाव हुए तो अब संसार की व्याप्य और ईश्वर की व्यापक सजा हुई तो फिर से उस की सत्यता और शुद्धाद्वैतता दिखाने के हेतु कहते है। कि व्यापक के सत्य होने से उसका माय भी सत्य ही है ।। ८७ ।। न प्राणियुनिभ्यो संभवात् ।। ८८ ।। (मायावाद निराकरण करके उसके समान ही नास्तिकवाद का भी निराकरण करते है। यह किसी प्राणी की बुद्धि से नहीं बना है, क्योंकि इसकी सूक्ष्मता प्राणियों की बुद्धि के बाहर हे इस से यह प्राणियों की बुद्धि से निर्मायोच्चावच अतीश्च निर्मिमीते पितृषत् ।। ८९ ।। यह सब भूत-समूह बना कर वेदों को बनाता है, पिता की भांति ।। ८९ ।। जैसे पिता पुत्रो को उत्पन्न करके फिर उनको शिक्षा देता है वैसे ही भगवान अपने एकाश से जीवों को प्रगट करके फिर उनकी शिक्षा के भक्ति सूत्र वैजयंती ६५९ बना है यह बात असंभव है।८८॥

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