पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/९०४

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साधारण जीवों की आय ही प्रारब्धकी भोग कराने वाली हे परत भगवतभक्तों को तो उन संचित परब्धों की पर ही हानि हो जाती है क्योकि उसकी मात्रय आयु का भोग नहीं रहता ।। १७ ।। अर्थात जिना ARY हेतु वेद कहना मित्रोपदेशान्नेति चेन्न स्वल्पत्वात् ।।१०।। जो कहो कि बेद के उपदेश मित्र है अर्थात अग्निष्टोमादिक यज्ञ में हिंसा का विधान है इस से ये वेद ईश्वर के बनाये नाही, ऐसा नहीं क्योंकि वह भाग उस में बहुत ही खेड़ा अर्थात् उपेक्षित है ।। १० ।। फलामस्मानादरायणो दृष्टात्यात् ।। ११ ।। (अय कर्मवादियों का मत निराकरण करते है) कि ये कम स्वत: फलदाता नहीं, फल देनेवाला ईश्पर ही है. यह व्यास जी कहते है क्योंकि ऐसा ही देखा भी जाता है ।। ११ ।। जैसे राजा के तोष के हेतु अनेक कर्म करो परंतु उसका प्रतिफल देना राजा ही के अधिकार में है वैसे ही ईश्वर का प्रसन्न होना कर्म के अधीन नहीं कर्म केवल साधक है। ब्युतक्रमादम्बयस्तथादृष्टम् ।। १२ ।। लय उलटी बाला से होता है ऐसा ही देखा गया है ।। १२ ।। जैसे गोरखधंधे की विनियों व फेलाते जाओ तो कई डित्रियां हो जाती है और जब बंद करा तय सत्र से छोटा अपने से बड़ी डिबिया में श्रीर वह अपने से वश में इसी प्रकार त वाणी वटी डिबिया में सब विधियाँ छिप जाती है वैसे ही जिस क्रम से उत्पति होती है (अर्थात ब्रहम से प्रकृति, प्रकृति से महतन्य इत्यादि एक से एक उत्पन्न होते हैं। वैसे ही लय होने के समय सब भगवान में लग पाते है. इस से फिर भी संसार की नित्यता सिद्ध किया । तीसरे अध्याय का प्रथमाहिनक समाप्त हुन। नीक्यं नाना पैकन्यमुपाधियागहानानित्यवत् ।। १३ ।। उसकी एकना है क्योकि उपाधि के योगा के मिटने से नानाल का एकत्म हो जाता हे आदित्य की भाँत ।। ९३ ।। जैसे 'ध्येय: सदा सवितृम हलमध्यधनीं" इत्यादि वाश्यों से भगवान का स्वरूप और आशियमंडण यह दो पृथक प्रनीन होने है परनु वास्नष पृथक् है नहीं क्योंकि जब मंडलरूपी उपाधि को भगवान आने में नय कर रोता है तब केवल नारायण संज्ञा रह जाती है वैसे ही जब संसार को अपने में कर के उस के संयोग-विधागात्मक "संसार" इन नाम को भी अपने में लय कर लेना है न केवल आपही रह जाता है। धागति चन्न परंणासम्बन्धातप्रकाशाना ।। १४ ।। आगग का मा नहीं, ऐसा कहने में पर अर्थात भगवान से असबंध होगा जैसे प्रकाशा का ।। ९४ ।। प्रकाशी का अचान मूर्य-मंडन की और नागमण की जैसी एकना है जैसे ही भगवान से इस से एकता है । इन दोनो का संबंध नहीं हो सकता नपिचारिणस्नु करणावारान् ।। १५ ।। ये आत्मा विचारी नहीं है क्योंकि ऐसा मानने से उनकं कारण नयन भनजन को भी विकार मानना अनन्यभक्या नाटिदिनयानापन्न ।। १६ ।। (भजनीय च्या और भजन करने वाले का स्वरूप दिखा कर उनके वियोग स्मृति का स्मारक फिर से कहते है) कि उस परमानंदमय भगवान में अनन्य भक्ति करते करने मृगी कीट की भौति तदबुद्धि हो जाती है और उस बुद्धि के भी लय होन से अति वियोग जन्य असहय दुःख से सब सुध बुध टूट जाने से अत्यंत अर्थात सन वासनाओं के मोक्ष होने से परमानद अर्थात आनंद मात्र कर-पान-मुखोददि भगवान श्रीकृष्णचंद्र से नित्य लीला में संयोग होता है ।। १६ ।। आयुश्चिमितरेषांतहानिरनास्पदयात् ।। १७ ।। (जो कहो कि संचित प्रारब्ध ज्ञा भोग तो हन्ना ही नहीं आनंद प्राप्ति कैसे हुई इस पर कहते हैं कि P0%* भारतेन्दु समग्र ८६०