पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/९०७

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वैष्णवसर्वस्व (संप्रदायपरंपरा और स्वल्प पुरावृत्त समेत) 'चतुमुंजभुजच्छाया समालंबात्सुनिर्भयाः।। जयंति संप्रदायास्ते चत्वारो हरिवल्लभाः।। इसका रचनाकाल सन् १८७५ से १८७२ की बीच है। हरिश्चन्द्र चन्द्रिका' सं. १० सन् १८७९ की अप्रैल के उत्तरार्ज अंक मे प्रकाशित । सन् १८७६ मे प्रकाशित युगल सर्वस्व की भूमिका में भी इसका उल्लेख है।- सं. वैष्णवसर्वस्व (पटवार्ड) १- क्षार से परे अक्षर ब्रहम स्वरूप नित्य लीला का गोलोश में धाम है जहाँ श्रीनवन में श्रीयमुनानी के निकट अनेश कुजलतानों से येष्टित एक मणिमय महायोगशिलास्तम्भ है । उस भूमि का नाम विहारभूमि और तीर्थों की नाम-मूल-स्वरूप योगपीठ-शिला से मंडित उस कुहिम का नाम खेला तीर्थ है, जहां घेद घेतांतादि सर्वशास्त्र पेय सच्चिदानंदधन परमात्मा परमानंद-स्वरुप अनेक कोटि नियामड, साभन सिद्ध, भक्त, गोप. गौ और श्री गोपीजनों से प्रेष्टित उस योगपीठ पर एकाग्र चिता से ध्यानावस्थित होकर श्रीब्रजेश्वरी की मानावस्था का ध्यान करते है। २-एक समय सब देवताओं के पूर्वज, सब विद्याके ईशान, सब भूतों के ईश्वर, चराचर के गुरु, मुमुक्षु-धारण, गुण-ब्रहमस्वरूप श्री शिवणी उस गोकुल मंडप में गये । वहाँ अनेक प्रकार के गान से भगवान को रिझाया और संसार के उद्धार के हेतु प्रम-मार्ग का सिद्धांत पूछा और भगवान ने प्रेममार्ग का परम गुप्त तत्व और रहस्य सब शिवजी को कहा, जो सुनकर शिष जी ने जगत के विरुद्ध दिगंबर रूप प्रेमानन में मग्न हो अनेक प्रकार से नृत्य किया और कभी उस प्रममार्ग का प्रकाश न किया । यदि कभी कुछ कहा भी तो भगवान की परामाया श्रीपार्वती से ही कहा क्योंकि युगलस्वरूप के परम गुप्त विद्यार के अनुभव करने या कहने सुनने का

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वैष्णव सर्वस्य ८६३