पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/९०८

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में से निकला है और नारायण भी अनेक मत्स्यादि अवतार वारंवार लिया करते है, इस से परतंत्र ज्ञात होते है 440 पुरुष शरीरधारिणे में शिव जी को छोड़ कर और कोई अधिकारी नहीं । ३- श्री महादेव जी को इस अवस्था में देखकर नारद जी ने अनेक बार तत्व पूछा परंतु श्री महादेवजी ने न बताया पर जब त्रिपुरासुर के युद्ध में भगवान ने त्रिपुर का नाश किया तब नारदजी ने बड़ी स्तुति किया और जब भगवान ने प्रसन्न होकर कहा कि "वर माँगो" तब नारदजी ने यही दर मांगा कि प्रेममार्ग का तत्व हम को वताइये और भगवान ने प्रेममार्ग के अनेक तत्व इन को बताये और सनकादि सिदों तथा आदि ऋषियों को भी भक्ति मार्ग का उपदेश किया । इस से ये नारदजी भक्ति मार्ग के तीसरे आचार्य हुए। ४ - श्री नारदजी ने कृपा कर के उस तत्व को शाण्डिल्य, गर्ग, कौण्डिन्य आदि ऋषियों से कहा और अनेक ऋषियो के वाक्यों तथा शास्त्रों की विचित्र प्रवृत्तियों से व्याकुल श्री व्यासजी को भी अपना तत्वोपदेशा किया। ५- व्यासजी ने उस तत्व को श्री शुकदेवजी से कहा । ६- श्री शुक्राचार्य इस परंपरा में तृतीय और सप्तम दोनों है । तृतीय तो यों है कि नित्यलीला से वियुक्त एक शुक संसार में भ्रममाण होकर कप्ती शांति न पाता हुआ कैलास में योगषट पर जा बैठा । वहाँ श्री महादेवजी पार्वती जी से परमगुप्त भगवद्रहस्य कहते थे और यह लीला शुक उस नित्य पीणा से वियुक्त सह सय नरित्र ज्ञान बल से सुनता तथा केवल लीला के अधिकारी होने ही के कारण उस रहस्य स्थान में उस का प्रवेश भी हुआ । श्री महादेवजी श्री पार्वती जी से अंबिधावन में युगल स्वरुप का पिटार तत्व कह रहे थे क्योंकि उस अभिकापन में पुरुष भी जाय तो स्त्री हो जाय क्योंकि पुरुष शरीर उस गुप्त रहस्य सुनने का अधिकारी नहीं । उस लीलास्थ शुक ने षे रहस्य चरित्र सुने. उस के नेत्र से प्रेमात्र के गिरे और श्री महादेव जी के जंचा पर पड़े । महादेव जी ने यह जान कर कि इस शुक ने हमारा रहस्य खुना, बड़ा क्रोध किया और उस के मारने को अपना त्रिशूल चलाया और वह शुक वहां से भागा और व्यास जी की स्त्री के गर्भ में छिपा, इससे ब्राइमणी और स्त्री को अवध्य जान कर शिवजी का त्रिशूल फिर आया और शुक्रदेव जी ने व्यासजी के घर में जन्म लिया । तो जो रहस्य शुकदेवजी ने साक्षात शिवजी से। थे ये अपने शिष्य श्री विष्णु स्वामी से कहे, इससे तो ये (शुक्र) तृतीय हुए । और घर से निकल जाने के पीछे नारदजी से "अहो वकीय स्तनकालकूट" यह श्लोक गाते हुए सुन के भगवान के चरित्र पूछे तब नारदजी ने कहा कि तुम्हारे पिता ये सब चारेच भली भाँति जानते हैं उन से जाकर पृष्ठो । यह नारदजी का वाक्य सुन शुकदेवजी घर आए और अपने पिता ज्यासजो से सब रहस्यतत्व सीखे, इस रीति से ये षष्ठ हुए। ७ - श्री विष्णुस्वामी – महाराज युधिष्ठिर के राज्य समय से किंचित कलियुग बीते द्रविड़ देश में एक राजा हुक्षा । उस का मंत्री सर्वगुण संपन्न एक ग्राहमण हुजा, जिस का नाम नारायण भट्ट था । उन के घर में भाद्रपद कृष्ण भोनधार रोडिणी नक्षत्र दो पहर ही समय में श्रीविष्णु स्वामी का जन्म हुआ । इनका बालपन का नाम माधव भट्ट था ! सातवें बरस में इनके पिता परलोक सिधारे और माता पति के साथ सती हो गई तब श्री विष्णु स्वामी अपने मामा रंगनाथ के साथ विवाभ्यास के हेतु श्री काशी क्षेत्र 'चले । मार्ग में पंढरपुर राजा मंगलसेन की भेंट कर के व्याज्ञी में आए और सदाशिव नामक प्राइमण से विद्याध्ययन किया और जब गुरुदक्षिणा में गुरु ने यह मांगा कि हम को व्यास सूत्र में कुछ संदेह है सो व्यास जी के मुख से वह अर्थ सुनाय दीजिये । तब योगबल से श्री विष्णु स्वामी ने एक दिव्यरच मंगाया । उस पर आप आरूढ़ होकर अपने गुरु और उन के अनुज हरिहर भट्ट और पुत्र रंगनाथ भट्ट को साथ लेकर व्यासजी के आश्रम में जाकर व्यासजी के मुख रंगनाथ को शिष्य किया और सात सौ बरस भगवान की आशा से अपना शरीर रक्खा । परंतु यह काशी शुद्धादेत मत के अनुसार मायावाद का खंडन गुस को सुनवाया और फिर पृथ्वीपर आकर हरिहर भट्ट यात्रावाणा प्रसंग सब चरित्र के ग्रंथों में नहीं मिलता, केवल श्री विष्णुस्वामी चरितामत नामक ग्रंथ ही में मिलता है । सब चरित्र सम्मत मत यह है कि श्री विष्णुस्वामी ने घर में सब विद्या पढ़ी और उनको इस बात का सोच गड़ा कि हम अब किन गुणों कर के अपने पिता से अधिक होय क्योंकि हमारे राजा से बढ़ कर इस देश में कोई राजा नहीं और समारे पिता से बढ़ कर राजा के घर में और कोई मानपात्र नहीं तब कुषेर की सेवा करें, तो कुपेर भी की इंद्र का अनुयायी है और इनाबिक देवता रुद्र के हैं और रुद्र तो प्रहमा का पुत्र है. ग्रहमा भी नारायण के नाभि भारतेन्दु समग्र