पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/९०९

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भगवान के कहे ए प्रकार से और जैसी मूर्ति का स्वामी ने जन किया था वैसी मार्ति निर्मित करा के स्थानी सवा करने लगे और लोकोपकार के हेतु आपने शिष्य संग्रह भी किया और किसी लेख के। कर प्रतिरोध किया । किसी के मत से आपने विवाह नहीं किया केवल विदंडी सन्यास करके सतत श्री हरि सेवन किया । जिस का मत "विवाह किया" यह उसी का यह भी लेवनाने शरीर सात सौ बरस रक्या और आप को जो पुत्र हुआ उनका नाम बीगोपीनाव या जिनका उसी भट्टाचार्य, मोहनलाल, व्यकदेश, नरहरि, चिंतामणि, सोमगिरि, पदावती, कृतशेखर, चंद्रसेन, हरिजीवी, शंकर, गोविंददास देवमीव. यज्ञनारायण, नरसिंह, लल्यणगिरि, हरिदास. गोविनवास. वाराम, जीवनराम, मनसाराम, कृष्णदत्त, बोपदेष, केशव, जयदेव, रत्नपाल, दर्गावती, नामदेव बिल्वमंगल इत्यादि शिष्यवर्ग स्वामी होकेकाल में हुए है। वरंन भी महाप्रभत्री को भी स्वामी ने आप ही उपदेशकर मानार्य परवीने भाग्य परपरा-प्राप्त शिष्य हुए और या नाम लिखा है वे उन में प्रसिदथे ओर बहुताकनामचा बरा से लुप्त हो गए । इसीहो और वर्णन डाइक उस पोर काल: धर्म प्रायः उच्छिन्न सा हो गया था। भगवान ने वावतार लेकर गहत से उपचमा का उपदेश करकं सारे ने स्वीकारा । अनन्तर अपने को प्रगट करने की संधि देख रहे थे। उसी समय दक्षिण में विदेश में एक महा शिव-भक्त बद प्राइमण था उस को कोई संतति नहीं थी इसलिए वह ब्राहमण का अनुष्ठान करता था। सो एक दिन आप प्रसन्न हो कर "वरं बडि" यह बोले । यह शिव जी की वाणी सनते ही ग्राहमण ने कहा "महाराज! यदि आप प्रसन्न है तो मुझे पुत्र मिले" । इस पर शिय बोले "निर्गुण मूर्ख पुत्र चाहोगे तो एक सी कृष्ण १३ वर्णन किया जाता है, जिस में वैदिक इस से उपनिषदों में सर्वेश्वर जिसको कहा है हम उस की उपासना करेंगे और जो सर्वेश्वर है उसकी सेवा ga महाराजोपचार से करने योग्य है ऐसा विचार कर के छत्र, चमर, सिंहासन, शय्या, धूप, दीप, भोग, इत्यादि राज सेवा-सामग्री सिद्ध कर के और भगवान का नाम रूपादि न जान कर के संघस्वामी के भाष से सेवा करने लागे । ऐसे ही निस्थ सेवा कर पर उसका कोई गातार न कर जान से ही बहुत दिन वाले और उन की सेश अंगीकृत न हुई तब उन्हों ने तो यह प्रण किया कि यदि आज से सर्वेश्वर मेरी सेवा न ग्रहण करेंगे तो में भी अन्न ग्रहण न करूंगा और ऐसे ही बिना भन्न जाणादि से छ: दिन बीत गये तब सात दिन नित्य की भांति भोग घर के प्रतिज्ञा की कि यदि आज भी सेवा अंगीथर न होगा तो हम अग्नि प्रवेश करेंगे । ऐसी इन ची बुद्धि की दृढ़ता देख कर श्री मच्छ गुणीश्वस्य भगवान विभूत हुए और सब सेवा का अंगीकार किया । जब स्वामी गए स्वामिनी समेत को देख रवाहां सच्चिदानंद रूप पन साक्षात् परब्रहम विभुज मुरली-भूषित दक्षिण और धाम दोनों भागों कर बोले कि म यहां क्यों आए हैं, आप तो पुराण और तंत्रों के प्रतिपाच साकार देवता है और हम ने तो श्रुतिशिरः प्रतिपाय निर्गुण सव स्रष्टा सवस्थामी की उपासना और सेवा की । यह श्री विष्णु स्वामी का वाक्य सुन भगवान बोले - 'यदि हम से बढ़कर कोई ईश्वर है तो उसने तुम्हारी सेवा क्यों नहीं लिया ? और मैने यदि चोर भाव से लिया तो उस ने दंड श्यों नहीं दिया ?' तब विष्णुस्वामी ने कहा - 'तुम सादात ईश्चर हो. हम तुम्हारे शरणापन्न है, अपना माहात्म्य श्राप स्थापन कर के हमारा संशय दूर करो' । इस पर भगवान ने अनेक युक्ति और प्राणों से अपना स्वरूप प्रतिपादन किया तब विष्णुस्वामी ने कहा कि आग सपरिवार यही विराजये और मेरी सेक्स का अंगीकार नित्य करो । तब आप ने आता किया कि हमारी मूर्ति की प्रेम से सेवा करो हम समस्याका काकामिन कार मात्र उपहार के गीता और प्री भागवत से आपने विशाह 'है घनिष्य नक्षत्र प्रथम प्रदर में जन्म हवा और २२ पीडी तक वंश भी रहा और हरिहर रंगनाथ, जयगोविंद के मतानुसार चैत्र करने की आज्ञा दो परंतु यह प्रमाण है। वास्तव में श्रीगोपीनाथ से ले कर श्री विल्वमंगला तक सात सौ भारतवर्ष को उस धर्म से परिपूर्ण कर दिया । उस के पी दिन कैलास के शिखर पर सिद्ध के कष्ट पातासमका च्यान करतरह कुछ कात के बाद भागान उनकी समाधि से प्रगट हो कर कहने लगे कि "तुम द्वापरादि युगों में मनुष्याग्नि में अश से अयत्तीर्ण हो शास्त्रों में लोगों को मुझ से विमुख करो और अपना प्रभाष प्रगट करो" । यह सुन शिवजी कर अपने बनाये हुए पांच बरस का मिणे गा और दूसरा सर्वगुण सम्पन्न बारह वर्ष का मिलेगा ।" इस पर ब्राहमण बोला महाराज ! तब तक आए ठहरिये जब तक में अपनी स्वो से इसकी सलाह पहुँ' । महादेव जी का ठहरने का विचार जान eleke वैष्णव सर्वस्व ५६५