पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/९११

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हा तो हम न मरें । कहते हैं कि इतने ऊँचे से गिरने से वेद की सत्यता से उनके प्राण तो नहीं गये पर 'जो वेद सत्य हो' इस संदेह के वाक्य कहने से उनकी आँख में चोट आई और वहाँ से निकल कर उस नगर में एकांत में वे छिपे छिपे रहने लगे । एक दिन एक बगीचे में एकांत में एक तुलसी का पेड़ देखा और वहीं बैठे रहे । जब साँझ हुई तब एक माली आया और तुलसी की पुड़िया फूल में छिपाकर ले चला । भट्टाचार्य ने माली से बहुत हठ पूर्वक रानी का सब वृत्तांत जाना और कि करोमि क्व गच्छामि' यह पूरा श्लोक लिखकर माली को दिया कि वह रानी को देवे । रानी ने एकांत में भट्टाचार्य को बुलाया और यह जैन बनकर उसके महल में गए और फिर ब्राह्मण होकर रानी का दर्शन दिया । रानी ने इसकी बड़ी पूजा किया और दोनों ने मिल कर वेद धर्म के लिए बड़ा विलाप किया। रानी ने उनको अपने महल में छिपा कर रक्खा । फिर जैसा वशीकरण का बाजू हेमसूर्य ने राजा के हाथ में पहिनाया था वैसा ही दूसरा बाजू भट्टाचार्य ने बनाकर रानी से राजा के हाथ में बंधवा दिया और वह बाजू अपने पास मंगवा लिया इस अभिचार से राजा को बड़ा ज्वर आया । राजा ने हेमसूर्य से ज्वर की निवृत्ति का उपाय पूछा । उसने कहा कि ब्राहमण को काल-पुरुप दान देने से ज्वर छूटेगा । राजा ने एक ब्राह्मण का लड़का खोज कर जनेऊ पहना कर काल-पुरुष को दान दिया और उससे राजा का ज्वर छूट गया । राजा के चित्त में उसी दिन से ब्राहमणों का महत्व बढ़ा और ब्राहमणों को राज्य में रहने की आज्ञा मिली । उसी समय देवप्रबोधाचार्य भी प्रायश्चित्त करके नरसिंह जी सेवर पाकर सिद्ध होकर पालकी पर चढ़ कर बहुत से शिष्यों के साथ उस नगर में आये । भट्टाचार्य इनसे आकर मिले । एक दिन जब ये प्राद करते थे तब हेमसूर्या ने अपने मंत्र से इनका श्राद्ध नाश करना चाहा और जहाँ पाक होता था वहाँ मद्य बरसाना चाहा । भट्टाचार्य ने भी मंत्र से नारियल उड़ाये, जो जैन सिद्धों के सिर पर गिरने लगे, जिससे वे वहां से भाग गए। दूसरे दिन सब ब्राहमण मिल कर राजसभा में गये । राजा ने प्रणामादि से इनका बड़ा सत्कार किया । ज्योतिषी ने पंचांग सुनाया । स्मार्त ने कहा आज अमावस्या है, श्राद्ध करना चाहिये । सुनते ही हेमसूर्य ने कुढ़ कर कहा कि आज अमावस्या नहीं पूर्णमासी है । अंत में यह ठहरी जिसकी बात झूठ हो वह अपने मत की पुस्तक समेत पृथ्वी में गाड़ा जाय । साँझ को हेमसुर्य ने अपनी इष्ट देवता पद्मावती से प्रार्थना करके उसका कुंडल चंद्रभा के स्थान पर उदय कराया । देवप्रबोध ने नृसिह जी के प्रसाद से यह बात जानकर राजा से कहा कि यह कुंडल है और इसका प्रकाश केवल बारह कोस तक है । राजा ने उसी समय सवार भेजकर जब वृत्त जाना तब दूसरे दिन हेमसूर्य को पुस्तकों समेत पृथ्वी में गाड़ दिया । जिस समय हेमसूर्य गाड़ा जाता था उस समय बड़ी भीड़ हुई और सब लोगों ने मिलकर हेमसूर्य से पूछा कि 'अब तुम धर्म का सच सच तत्व बताओ तब यह श्लोक पढ़कर उसने प्राण त्याग किया- 'हरिभर्भागीरथी विप्राः विप्राः भागीरथी हरिः । भागीरथी हरिविप्राः सारमेकं जगत्त्रये" ।। जैनों का बल टूटने से वेद फिर प्रवर्त्त हुये और वैष्णव-शैवमत प्रचार हुआ । भट्टाचार्य ने अपना वेदांत मत चलाया और पद्मावती को श्राप दिया कि तु मनुष्य हो । वही सरस्वती नाम से भट्टाचार्य ही के कन्या हुई और भट्टाचार्य ने उसका विवाह ब्रहमा के अंश सुरेश्वाराचार्य्य नामक अपने शिष्य से कर दिया । सुरेश्वर अपनी स्त्री को लेकर काशी में रहने लगे। जिस समय भट्टाचार्य शतायु होकर जैन ग्रंथ पढ़ने के प्रायश्चित्त में तुषानल करके जलने लगे, उस समय शंकराचार्य ने आकर इनका हाथ पकड़ा और कहा कि हम से वाद करो । भट्ट ने कहा तुम काशी जाव वहाँ हमारे जामाता से वाद करना, हम तो अब देह त्याग करते हैं । शंकराचार्य काशी में आये और सुरेश्वर की स्त्री को मध्यस्थ कर के वाद आरंभ किया । पद्मावती ने पूर्व वैर स्मरण कर के शंकराचार्य का पक्ष किया । सातवें दिन सुरेश्वरचार्य्य हारे और शंकराचार्य ने उन्हें सन्यासी किया । शंकर दक्षिण में गोकर्ण शिवक्षेत्र में आये और चार शिष्यों को आज्ञा दिया कि चार दिशा में जाकर तुम लोग शिखा सूत्र परित्याग पूर्वक सन्यास मत का प्रचार करो । उन शिष्यों में मध्व नामक एक ब्राहमण को भगवान श्री रामचंद्रजी ने रात्रि को स्वप्न में आज्ञा दिया कि तुम तो हनुमान के अंश हो और वैष्णव मत फैलाने का तुम्हारा अवतार है, सो उठो और शंकराचार्य का मत खंडन करके हमारे तत्व वाद के अनुसार व्यास सूत्र की व्याख्या कर के वैष्णव मत फैलाओ । मध्वाचार्य ने भगवदाज्ञानुसार दूसरे दिन से शंकराचार्य का मत कंठरव से खंडन करके वैष्णव मत का प्रचार किया । वित्वमंगल के पीछे और मध्वाचार्य के पहले द्रविड़ देश में रामानुज नाम एक ब्राहमण हुये । लक्ष्मी को तप से प्रसन्न करके उनसे वर माँगा कि हमसे भवगत् सिद्धांत कहो । लक्ष्मी जी ने गरुड़ जी को आज्ञा दिया और गरुड़ जी ने नारायणीय सिात रामानुज से कहा, जिसके अनुसार श्रीरामानुजाचार्य ने गीता और सूत्र वैष्णव सर्वस्व ८६७