पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/९१८

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अनेक समय पृथ्वी पर कहीं पुरुषोत्तम का अवतार हुआ है । उनके सेवकों में से कृष्णदास मेघन नामक एक सेवक थे, होगा, सो वह गुरु का वचन सुनते ही यह विचार करके घूमने निकले कि जो पुरुषोत्तम का प्रागट्य कहीं दर्शन होहीगे और जो हमको नाम लेकर पुकारेगा उसी को हम पुरुषोत्तम जानेंगे । यह कृष्णदास मेघन फिरते फिरते श्री महाप्रभुजी के उपवीत-समय काशी में आये और भीड़ देखकर जो श्री लक्ष्मण भट्ट जी के घर में गए तो उनको देखते ही श्री महाप्रभुजी ने आज्ञा किया "कृष्णदास तु आये" । इन्होंने दंडवत करके उत्तर दिया जै, मैं आयो" और एक अंगूठी श्री महाप्रभु जी के यज्ञोपवीत भिक्षा में दी और तब ये आजन्म श्री प्रभु जी के साथ ही रहे 1 उपवीत धारण करने के पहले और पीछे जब आप खेलते तो ब्राहमण के लड़कों को शिष्य बनाते और आप गुरु बनकर उपदेश करते । लक्ष्मण भट्ट जी के घर के पास सगुन दास नामक ढाढ़ी रहते थे । उनको श्री महाप्रभु जी के दर्शन साक्षात् पूर्ण पुरुषोत्तम के होय, इससे उनका नेम था कि नित्य आपका दर्शन करके तब जल पीते । तो जब श्री महाप्रभु जी चरणारविंद से चलने लगे तब आप उनके घर पधार कर दर्शन देते । सो एक दिन श्री लक्ष्मण भट्ट जी ने आप से आज्ञा किया, कि शूद्र के घर आप मत पधारा करो । इस पर श्री महाप्रभु जी ने यह वाक्य पढ़ा "स्त्रियो वैश्या तथा शूद्रा तेपियान्ति परांगति । यह सुनकर लक्ष्मण भट्ट जी ने श्री महाप्रभु जी को सगुन दास जी के यहाँ जाने की आज्ञा दिया । यज्ञोपवीत के पीछे श्री महाप्रभु जी को लक्ष्मण भट्ट घर ही में वेद पढ़ाते थे परंतु आप की बुद्धि बड़ी तीक्ष्ण थी. इस हेतु असाढ़ सुदी २ पुष्यार्क योग में माध्वानंद स्वामी के यहाँ लक्ष्मण भट्ट जी ने आपको पढ़ने को बैठाया । सो चार ही महीने में चारो वेद, छओ शास्त्र पढ़कर सब को बड़ा आश्चर्य उत्पन्न किया । गुरु दक्षिणा में माध्वानंद स्वामी ने श्री ठाकुर जी की सेवा माँगी तब आपने आज्ञा किया कि जब श्रीनाथ जी को प्रगट करेंगे तब आए को सेवा देंगे । इन्हीं को और ग्रंथों में माधवेंद्रपुरी करके लिखा है और ये मध्य संप्रदाय के आचार्य थे । और विद्याविलास भट्टाचार्य से आपने न्याय, पातंजल और काव्य पढ़ा । श्री महाप्रभु जी की विद्या देख करके लक्ष्मणभट्टजी को फिर संदेह हुआ परंतु ठाकुर जी ने स्वप्न में पुनदर्शन देकर वह संदेह निवृत्त कर दिया । यह माधवेंद्रपुरी श्री कृष्ण चैतन्य के मंत्र गुरु हैं और इसी कारण श्री महाप्रभु जी और श्री कृष्ण चैतन्य से मित्रभाव था और आपने उनको श्री गोवर्द्धन की कंदरा से लाकर कृष्ण प्रेमामृत ग्रंथ दिया था और ऐसे ही निम्बार्क संप्रदाय के आचार्य केशव काश्मीरी जी से भी आप का बड़ा संग रहता था । विदित हो कि चैतन्य संप्रदाय के ग्रंथ वृहद्गौरगणोददेशदीपिका ने श्री महाप्रभुजी को चौंसठ महानुभावों की गिनती में अनन्त संहिता के ७५ वे अध्याय के प्रमाण से श्री शुकदेवजी का अवतार लिखा है। एक समय श्री लक्ष्मण भट्ट जी ने मायावादी संन्यासियों को अपने घर भोजन को बुलाया था सो श्री महाप्रभु जी ने ऐसा शास्त्रार्थ उठाया, जिससे मायावाद का खंडन होय । तब लक्ष्मण भट्ट जी ने कहा जो अपने घर आवे उसका अपमान नहीं करना, इससे आपने उनसे शास्त्रार्थ नहीं किया । पर वैष्णव धर्म-प्रचार की आप को ऐसी उत्कंठा थी कि काशी में जहाँ शास्त्रर्थ होता वहाँ आप जाते और वैष्णव मत का मंडन और अन्य मत का खंडन करते । यहाँ तक कि लक्ष्मण भट्ट जी के पास लोग उरहना देने आते कि आप के पुत्र ने भरी सभा में हमारा अपमान किया । तब लक्ष्मण भट्ट जी आप को निषेध करते । तब जिन पंडितों से आप निषेध करते उन पंडितों से शास्त्रर्थ न करते । उस काल में विश्वनाथ के सभामंडप में पंडितों की सभा नित्य होती थी और वे लोग एक बात पर निर्णय करके तब उठते थे । सो श्री महाप्रभुजी उस सभा-स्थान की भीति पर श्लोक नित्य लिस आते और जब पंडित लोग उसका एक दिन में निर्णय करते तो दूसरे दिन दूसरे श्लोक से उनका सब निर्णय खंडित हो जाता । ऐसे ही तीस दिन तक आपने यह खेल खेला और उसी से पत्रावलंबन ग्रंथ बन गया । एक प्रसंग यह भी है कि आप से बहुत से पंडित शास्त्रार्थ करने को आते थे और समय बहुत थोड़ा था, इस लिए आपने पत्रावलम्बन ग्रंथ करके विश्वेश्वर के द्वार पर भी डुगडुगी फेर दी थी कि जिसको हमसे शास्त्रार्थ करना हो पहले जाकर वह पत्र देख ले । यह सुनकर जो पंडित वह पत्र देखने जाते वह सब अपने प्रश्न का उत्तर पाकर लौट आते और इसी में पत्रावलंबन ग्रंथ बना । श्री लक्ष्मण भट्ट जी को श्री महाप्रभुजी के इस घोर शास्त्रार्थ करने से बड़ा क्षोभ हुआ और आपने वात्सल्य KO भारतेन्दु समग्र ८७४