पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/९१९

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भाव से यह सोचा कि ऐसा न हो कि द्वेष करक जादू से कोई पंडित हमारे पुत्र को मार डाले । यह विचार कर आपने देश जाने का मनोरथ किया क्योंकि बारह वर्ष की काशी में रहने की आप की प्रतिज्ञा भी पूरी हो गई थी। यह सब बात विचार कर आप सकुटुम्ब काशी से दक्षिण चले । वहाँ से सात मंजिल पर यह सुनकर कि विष्णु स्वामी संप्रदाय के कोई पंडित लक्ष्मण भट्ट जी अपने पुत्र सहित काशी में अनेक पंडितों को जीत कर यहाँ आते हैं, बहुत से पंडित मिलकर एक साथ लक्ष्मण भट्ट जी के डेरे पर शास्त्रार्थ करने गए और जब श्री महाप्रभुजी ने उनको शास्त्रार्थ में जीता तब लक्ष्मण भट्ट जी ने प्रसन्न हो कर कहा कि वरदान माँगो । तब आपने दो वरदान मांगे -प्रथम तो यह कि आप हमको शास्त्रार्थ करने जाने से कहीं रोको मत और दूसरे यह कि शास्त्रार्थ में कोई हमारा तेज पराभव न कर सके । लक्ष्मण भट्ट जी ने बड़ी प्रसन्नता पूर्वक दोनों वरदान दिए । लक्ष्मण भट्ट जी साक्षात पूर्ण पुरुषोत्तम के धाम अक्षर ब्रहम शेष जी के स्वरूप हैं, इससे आप को त्रिकाल का ज्ञान है । सो जब आपने अपना प्रयाण समय निकट जाना तब कांगरवार से बड़े पुत्र रामकृष्ण भट्टजी को बाला जी में बुलाया और वहीं आपने डेरा किया । पुत्रों को अनेक शिक्षा देकर रामकृष्णभट्ट जी को श्री यज्ञनारायण के समय के श्री रामचंद्र जी पधराय दिए और कहा कि देश में जाकर सब गांव और घर आदि पर अधिकार और वल्लिनाटि तैलंग जाति की प्रथा और अपने कुल अनुसार सब धर्मपालन करो । ऐसे ही श्री यज्ञनारायणभट्ट के समय के एक शालिग्नाम जी और मदनमोहन जी श्री महाप्रभुजी को देकर कहा कि आप आचार्य होकर पृथ्वी में दिग्विजय करके वैष्णव मत प्रचार करो और छोटे पुत्र रामचंद्र जी को, जिनका काशी में जन्म हुआ था, अपने मातामह की सब स्थावर जंगम संपत्ति दिया । और श्री महाप्रभुजी के ग्यारह वर्ष की अवस्था में लमक्ष्मणबाला जी का शृंगार करते करते शरीर समेत उनके स्वरूप में लय हो गए । उनके पुत्रों ने लक्ष्मण भट्ट जी के वस्त्र का लौकिक संस्कार बड़ी धूमधाम से किया और महाप्रभुजी ने एक वर्ष तक यथाशास्त्र विहित सब रीति का बर्ताव किया । काशी में वैष्णव तंत्र, शैव तंत्र. कौमारिल प्रभाकर, मौद्गल इत्यादि मत से ग्रंथ और शैव, पाशपत. कालामुख, अयोर ये चार शव संप्रदाय और विष्णु स्वामी इत्यादिक चार वैष्णव संप्रदाय के ग्रंथ नहीं मिलते थे 1 इस हेतु सरस्वती भंडार में जाकर इन ग्रंथों को आपने अवलोकन किया और वेद की ३६ शाखा की संहिता ब्राहमण इत्यादिक कंठान किया । फिर जब इल्लमगारू जी पति के हेतु विलाप करती तब आप को बड़ा दुःख होता, इससे श्री बाला जी ने स्वप्न में इल्लमगारू जी को विलाप करने का निषेध किया । जब आपको पृथ्वी परिक्रमा की इच्छा हुई तब मातृचरण को मामा के पास पहुंचाने को आप विद्यानगर पधारे और मार्ग में अपने अंतरंग दामोदर दास जी को सेवक किया । विद्यानगर में राजा कृष्णदेव के यहाँ आचार्य के मामा रंगनाथ विद्याभूषण दानाध्यक्ष थे । श्री महाप्रभुजी अपने मामा के घर उतरे और वहीं यह सुना कि राजा कृष्णदेव की सभा में आजकल नित्त मतमतांतर का वाद होता है । यह सुन के आपने इच्छा किया कि हम भी चलेंगे। दूसरे दिन प्रात:काल स्नान संध्या होम करे बहमचारी का भेष कर आप राजा की सभा में पधारे । इनका दर्शन पाते ही सब सभा तेजीहत हो गई और राजा कृष्ण देव राय ने बड़े आदर से इनको बैठाया । तब आपने राजा से सभा का वृत्तांत पूछा । राजा ने हाथ जोड़कर १. ये रामचंद्रभट्ट बड़े पड़ित थे । गोपाललीलामहाकाव्य, कृष्ण कुतूहल महाकाव्य और शुगार-वेदात ये तीन ग्रंथ इनके मिलते है । अयोध्या में ये रहते थे और श्री महाप्रभु जी को विद्यागुरु करके मानते थे । वैष्णव दीक्षा श्री महाप्रभु जी से इन्होंने पाई थी कि नहीं. इसमें संदेह है और रामकृष्णभट्ट जी कुछ दिन पोछे सन्यासी होकर केशवपुरी नाम से खड़ाऊं पहनकर जल पर चलने वाले बड़े सिद्ध विख्यात हुए । इन लोगों के समकाल के प्रसिद्ध पंडित ये थे, मध्यमत में व्यासतीर्थ, निबार्क मत में केशवभट्ट, रामानुज मत में ताताचार्य और व्यंगकटाध्वरि, शंकर मत में आनंदगिरि, स्मातों में वा अन्य मत में मुकुंदानंद, केवलानंद, माधवानद. वरदराज के महंत हस्तशृंगार और रंगनाथजी के महत आनंदराम । २. राजा कृष्णदेव की वंश परपरा यों है । पाडु वंश में चंद्रबीज राजा के दो पुत्र थे-बड़ा मेरु छोटा नन्दि । नन्दि को भूतनन्दि, उसको नदिल के दो पुत्र - शेषनदि और यशोनदि । इन दोनो को चौदह पुत्र थे, जिनको अमित्र और दुर्मित्र नामक दो माई राजाओं ने जीत लिया । इनमें से सात भाई दक्षिण गए जिनमे से नंदिराज ने नंदपुर या रंगोला बसाया (१०३० ई.) । उनके वंश में फिर चालुक्य राज (१०७६ ई.) विजयराज जिन्होंने विजयनगर बसाया (१११८), विमलराज (११५८), नरसिधदेव, जो बड़ा प्रसिद्ध हुआ (११८०), रामदेव (१२४९) और भूपराज (१२७८) । भूपराज असुत्र था, इससे इसने अपने निकटस्थ गोत्रा 3 श्री वल्लभीय सर्वस्व ८७५ 58