पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/९२१

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498** प्रीनाथ जी गिरिराज ऊपर आए । वहाँ भी आप उनके पीछे पीछे गए, इसी से श्री भगवान ने प्रसन्न हो यह वरदान दिया कि 'यावत् यमुना जी में गंगा जल रहेगा तावत् तुम्हारी संप्रदाय अचल रहेगी" । ऐसा कह कर श्री नाथ जी अतान हो गए । तब आप जिस मार्ग से पूर्व में गए थे. पूर्व गत मार्ग से आ अपने व्याकुल शिष्यों से मिलकर आसन पर आए । तदनंतर श्री आचार्य जी महाप्रभु जी ब्रज की यात्रा करने चले और उसका निर्णय करके अनुक्रम से वर्णन किया है । और जिस जिस स्थल में आपने श्री मद्भागवत का पारायण कर बैठके नियत की है, जो अद्य पयंत प्रसिद्ध है, उस जगह ऐसा* चिन्ह किया है। तदीयसर्वस्व अर्थात् श्री नारदकृत भक्तिसूत्र का बृहत् भाष्य प्रेमी जनों के दासानुदास प्रेमपए के भिक्षुक तदीय नामांकित अनन्य वीर वैष्णव श्रीहरिश्चन्द्र दारा 'केनापि देवेन हृदि स्थिकेन' लिखित भक्त्य त्वनन्यया लभ्यो हरिरन्यत् विडम्बनम यह पुस्तक सन् १८७४ में लिखी गयी। तदीय सर्वस्व 'नारद भक्ति सूत्र' का हिन्दी भाष्य है। हरिश्चन्द्र मैगजीन जि.१नं. ५,१५ फरवरी सन् १८७४ में नारद सूत्र अर्थ सहित छपा था। बाद में इसकी व्याख्या भी की गयी। सं. उपक्रम तुच्छ हम आर्य लोगों में धर्मतत्व के मूलग्रंथों का भाषा में प्रचार नहीं । यही कारण है कि भिन्नता स्थान स्थान फैली हुई है । अनेक कोटि देवी देवताओं का माहात्म्य, छोटी छोटी बातों में ब्रह्महत्या का पाप और तुच्छ बातों में बड़े बड़े यज्ञों का पुण्य, अहं ब्रह्म का ज्ञान और मूलधर्म छोड़ कर उपधर्मों में आग्रह ने भारतवर्ष से वास्तविक धर्मों का लोप कर दिया । जिस जगत्कर्ता ने हम लोगों को उत्पन्न किया, संसार के सुख दिए, बुरे भले का ज्ञान दिया और अपना सत् मार्ग दिखलाया उससे यहाँ की प्रजा विमुख हो कर धर्मातर में फंस गई । यदि प्रथम कर्तव्य उसकी भक्ति के अनंतर कानुष्ठान में प्रवृत्त होते तो कुछ वाधा नहीं थी । वह न हो कर गौण कर्म तो मुख्य हो गए और मुख्य वस्तु गौण हो गई । इसीसे सारा भारतवर्ष भगवद्विमुख होकर छिन्न भिन्न हो गया जो कि इसकी अवनति का मूल कारण हुआ । कभी भगवद्विमुख कोई देश या जाति उन्नत हो सकती है ? धर्म हमरा ऐसा निर्बल और पतला हो गया है कि केवल स्पर्श से वा एक चुल्लू पानी से मर जाता 94 तदीय सर्वस्व ८७७