पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/९२२

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है। कच्चे गले सड़े सूत वा चिउँटी की दशा हमारे धर्म की हो गई है। हाय !!! इसी धर्मपथ को समुन्नत करने को एक ईश्वरवादी अनेक आचार्यों ने परिष्कृत और सहज धर्म प्रचलित किए हैं और अनेक लोग इन मार्गों में दीक्षित हैं । किन्तु उन लोगों में भी वायवेष वाह्याडंबर आचार विचार वा परनिंदादि आग्रह ऐसे समा गये है कि उनका धर्म किसी काम नहीं आता । या तो ईश्वरवादी हिन्दूसमाज से संपूर्ण वहिष्कृत हो जायेंगे या कर्ममार्ग से ऐसे दब जायगे कि नाममात्र के भक्त रहेंगे। इसी विषमता को दूर करने को इस ग्रंथ का आविर्भाव है । इस में मुक्तकंठ से कहा गया है कि केवल प्रेम परमेश्वर का दिव्य मार्ग है । यद्यपि यह ग्रंथ वैष्णवों की शैली पर लिखा गया है, किन्तु परमेश्वर के भक्तमात्र के हेतु यह उद्योग है । क्रिस्तान आदि विदेशी धर्मप्रेमी जन समझें कि कृष्ण उनके निर्गुण परमेश्वर का नाम है. वैष्णवों की तो कुछ बात ही नहीं है, शैव कहें कि विष्णु शिव ही का नामांतर है, ब्राहम समझें कि हरि ब्रहम ही को कहते है. उपासना और आर्यसमाज इसे अपना ही तत्य माने, सिक्ख इस में गुरु का पथ देखें और ऐसे ही भक्तिमार्ग वाल मात्र मत्र लोग इस को अपनी निज संपत्ति समझें । इस में कोरे कर्ममार्गी वा बहु-भक्त वा स्वयं-ब्रहम लोग यदि मुझ को गाली भी देंगे तो मैं अपने को कृतार्थ समझूगा । लोगों को उचित है कि इस ग्रंथ को देखें । निश्चय रक्खै कि परमेश्वर को पाने का पथ केवल प्रेम है। और बातें चाहे धम की हों या लोक की. दोनों बड़ी ही हैं । बिना शुद्ध प्रेम न लोक है न परलोक । जिस संसार में परमेश्वर ने उत्पन्न किया है. जिस जाति वा कुटुंब से तुम्हारा संबंध है और जिस देश में तुम हो उस से सहज सरल प्रम करो और अपने परम पिता परम गुरु परम पूज्य परमात्मा प्रियतम को केवल प्रेम से ढूँढ़ो । बस और कोई साधन नहीं है। हरिश्चंद्र समर्पण नाथ! आज बहुत दिन पर कुछ कहने चले है । कुछ कहते कहाँ से, जैसा चित्त रहता तब न कहते ? क्या आप से कुछ छिपी है ? भला आप से क्या, आप तो 00000 है. आपके लोगों ही से न छिपैगी । बोल चालही से मालूम पड़ेगी । प्यारे ! ऐसा क्यों ? हम हजार बुरे बुरे बुरे लाख दफे बुरे पर आप तो भले है न ? फिर क्यों ? क्या हमारी करनी पर गए ? तब तो हो चुकी । भला ध्यान तो कीजिए हमसे वा किसी से भी आप तुलना क्या ? हाय ! तुलना क्या कुछ बात ही नहीं । हरे ! हरे ! जो आप अपनी बड़ाई देखिए तो हम क्या बड़े बड़े क्या हैं । पर ऐसी तो नाथ ने आज तक कभी की नहीं यह नई क्यों होती है ? नाथ ! अपनाए की लाज तो हम पामरों को होती है तो बड़ों को क्यों न हो, और फिर आप की कृपा का क्या पूछना है । पर हाय ! क्या हमारे अपराध उस दया से भी बड़े निकले । प्यारे ! क्या इसी दशा में रहें ? नाथ ! क्या वे दिन अब दुर्लभ हो जायगे ? हाय ! उन पवित्र आँसुओं से क्या अब हृदय नहीं सिंचित होगा ? क्या वे सर्वचिंताविस्मारक प्रियालाप अब कर्णरंध्रों को फिर न पूर्ण करेंगे? क्या वे दिन अब इस जीवन में निस्संदेह दुर्लभ हो गए ? केवल जनम भर पाप कमाने और आपको और अपने को झूठ बदनाम कहने को ? धिक ! ऐसे जीवन पर । हम तो इसकी आशा इसी से करते थे कि दिन दिन हमारी चितवृत्ति उज्ज्वल होगी और दिन दिन प्रेमानद बढ़ेगा । इस हेतु नहीं कि प्रवाहरज्जु में हम दिन दिन और जकड़ते जायेंगे और केवल जीवनभार ढोकर संसार में लिप्त होकर अंत में आपके कहलाकर भी वैसे ही ड्रबैंगे जैसे तुम्हारे बिना संसार इवता है । जीवन का परम फल तुम्हारा अमृतमय प्रेम है यदि वही नहीं तो फिर यह क्यों ? क्या संसार में कोई ऐसा है जिससे प्रेम करै । जो फूल आज सुंदर कोमल हैं और जो फल आज सुस्वादु हैं पर कल न इनमें रंग है न रूप न स्वाद, सूखे गले मारे फिरते हैं, भला उनसे अनुराण ही क्या ? प्रेम को तो हम चिरस्थाई किया चाहें यहाँ प्रेमपात्रही स्थाई नहीं । तो नले बस हो चुकी फिर इनसे प्रीति का फल ही क्या ? फल शब्द से आप कोई वांछा मत समझिएगा । प्रेम का यह सहज स्वभाव है कि वह प्रत्युत्तर चाहता है सो यहाँ दुर्लभ है । हमने माना कि 'ऐसे भी सत् लोग हैं जो प्रो FOR 03 भारतेन्दु समग्र ८७८