पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/९२४

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१ॐ अथातोभक्ति व्याख्यास्यामः । अब हम यहाँ से भक्ति की व्याख्या करते हैं। १ । अथ शब्द मंगलवाचक है । अतः शब्द से नारद जी अपनी कही हुई पूर्वोक्त वार्ता का व्यावर्तन करते हैं और इन सूत्रों के द्वारा प्रतिज्ञापूर्वक भक्तिशास्त्र का व्याख्यान आरंभ करते है। २ॐ सा कस्मै परमप्रेमरूपा । वह ईश्वर में परमप्रेमरूपा है ।२ । सा नाम पूर्वोक्त भक्ति कस्मै नाम सदा प्रश्नाह ईश्वर में परमप्रमरूपा अर्थात् साधनांतरशून्या है । किं शब्द से ईश्वर का ही बोध होता है क्योंकि ईश्वर में सदा प्रश्न बना ही रहता है । "नैकः सर्व: स वः कः किं" विष्णुसहस्रनाम में भगवान् के नाम हैं क्योंकि वेद ईश्वर के विषय में 'नेतिनेति' बोलते हैं। ३ॐ अमृतस्वरूपा च । और अमृतस्वरूप है । ।३ । अमृत नाम मधुर है और मोक्षस्वरूप है क्योंकि जो भक्तिरत हैं उनको मोक्षांतर की अपेक्षा नहीं होती। ४ ॐ यल्लब्ध्वा पुमान् सिद्धो भवत्यमृतीभवति तृप्तोभवति । जिसको पाकर मनुष्य सिद्ध होता है, अमृत होता है और तृप्त होता है। ४ । यत् अर्थात् भक्तिस्वरूप अमृत को पाकर सिद्ध नाम साधनांतर निरपेक्ष और अमृती भवति नाम स्वयमानन्दरूप होता है, मृत्यु से निडर हो जाता है, तृप्त अर्थात् एतद् व्यतिरिक्त इस या परलोकगत सुखविषयक निरिच्छ होता है। ५ॐ यत्प्राप्य न किंचिद्वांछति न शोचति न द्वेष्टि न रमते नोत्साहीभवति । जिसको पाकर फिर न कुछ चाहता है न सोचता है, न किसी से द्वेष करता है न कहीं रमता है और न किसी विषय का उत्साह करता है ।। ५ ।। क्योंकि पूर्वोक्त वार्ता का मुख्य कारण मन है, परंतु जब वह इसने भक्ति से किसी (परमेश्वर) को अर्पण किया है तो उसके अभाव से ये बातें आप न होंगी क्योंकि कार्य कारण के बिना नहीं हो सकता । ६ ॐ यदज्ञानानमत्तोभवति स्तब्धोमवत्यातमारामो भवति । जिसको जानकर पागल, स्तब्ध और आत्माराम हो जाता है ।। ६ ।। भक्ति का स्वरूप कह कर सूत्र में फल कहते हैं कि उस भक्ति का स्वरूप जान करके मनुष्य मत्त अर्थात् पागल हो जाता है 'जडोन्म तपिशाचवत्' । निशम्य कर्माणि गुणानतुल्यान् वीर्याणि लीलातनुभिः कृतानि । तदातिहर्षोत्पुलकाश्रुगद्गदं प्रोत्कण्ठ उद्गायति रौति नृत्यति ।। यदा ग्रहग्रस्त इब क्वचिद्रसत्यानंदते ध्यायति वंदते जनं । मुहुश्श्वसन्वक्ति हरे जगत् पत्ते नारायणेत्यात्मगतिर्गतत्रपः ।। तदा पुमान्मुक्तसमस्तबंधनस्तद्भाव- भावानुकृताशयाकृतिः । निदग्वधवीजानुशयो महीयसा भक्तिप्रयोगेण समेत्यधोक्षजम् ।।" श्रीमद्भागवत में परम भागवत श्रीप्रल्हाद जी ने दैत्यपुत्रों को उपदेश करती समय भक्तों के वर्णन में ये तीन श्लोक कहे हैं । (यहाँ यह भी बात समझनी चाहिए कि ये असुरबालक उपदेशपात्र नहीं थे, तथापि भक्तजनों के चित्त में जो प्रेम की उमंग आती है तो पात्रापान का विचार नहीं करते) भक्त जन भगवान के अनेक लीलार्थ धारण किए गए स्वरूपों के कर्म और अतुल्य गुण और वीर्यों को सुनकर जब अत्यंत हर्ष से रोमांचित अव से गद्गद कंठ हो जाते हैं तब बड़े ऊँचे स्वर से गाते रोते नाचते हैं, कभी भूत लगे हुए मनुष्यों के समान हंसते हैं और चिल्लाते हैं, कभी बारंबार लंबी साँस लेते हैं, कभी तादात्म्य गति से 'हे हरे, नारायण, जगत्पते' आदि नाम कीर्तन लज्जा छोड़ के करते हैं । जब ऐसी गति हो जाती है तब मनुष्य सब बंधनों से छूट कर भगवद्भाव होके भाव, वही अनुकरण, वही चेष्टा, वही आशय, वैसी ही आकृत्यादि करने लगता है और अपने प्रेम से सुकर्म दुष्कर्मों के बीजों को जला कर अपनी परम भक्ति से भगवान को प्राप्त होता है। तो परम भक्ति प्राप्त होने का यही लक्षण है कि मनुष्य पागल हो जाता है और स्तब्ध हो जाता है अर्थात फिर उसको लोक ओर घेद्र भूत प्रेत देवता इत्यादि किसी को मानना वा किसी को नमस्कार वा किसी का किसी रीति आदर करने की आवाश्यकता नहीं रहती और आत्माराम हो जाता है अर्थात् संसार के विषयों में प्रीति छोड़ भारतेन्दु समग्न ८८०