पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/९२६

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भाव के समान ईश्वर में पुत्रवत् स्नेह करना, छठा 'कान्तभावनिरुद्ध" होना । इन छ निरोधों में पूर्व पूर्व से उत्तर उत्तर अधिक हैं। ८ॐ निरोधस्तु लोकवेदव्यापारसन्यासः । निरोध तो लोक वेद व्यापार का त्याग करना है ।।८।। इस सूत्र में निरुद्ध होने का स्वरूप कहते हैं । लोक और वेद के व्यापार को छोड़ देना ही निरोध है । ९ ॐ तस्मै अनन्यता तद्विरोधिषूदासीनता च । और उसमें अनन्यता और उसके विरोधियों पर उदासीनता भी निरोध है अर्थात विना अनन्यता हुए निरोध की सिद्धि नहीं होती ।। १ ।। १०ॐ अन्याश्रयाणांत्यागो नन्यता । अन्य आनयों का त्याग करना अनन्यता है। लोक में यह प्रत्यक्ष है कि स्वामी का सेवक, मित्र को मित्र, पुरुष को स्त्री बड़ी प्रिय होगी । जो अनन्य हो 'अनन्याश्चिन्तयन्तो मामित्यादि श्री महावाक्य भी है, व्याससूत्र में भी 'अनन्याधिपतिः' ईश्वर का गुण लिखा ११ ॐ लोकवेदेषु तदनुकूलाचरणं तद्विरोधिषूदासीनता । लोक और वेद में केवल उन्हीं (प्रेमपात्र) के अनुकूल आचरण करने से उस अनन्यता के विरोधी कर्म में उदासीनता आप से आप होती है ।। ११ ।। लोक और वेद में श्रीमद्भगवदनुकूलाचरण करना यही 'तद्विरोधिषूदासीनता' है अर्थात् जब हमने उनके अनुकूल हो सब आचरण किए तो तद्विरोधियों में उदासीनता आपही आ गई क्योंकि तदीय होने ही से जिनके सब पुरुषार्थ पूर्ण हो गए हैं और सब मंगलामंगल नष्ट हो गए हैं उनको कायांतर करने की आवश्यकता ही नहीं तो उनके वैदिक वा लौकिक कार्य आपही निवृत्त हो गए ।। ११ ।। १२ ॐ भवतु निश्चयदाढर्यादूर्द्र शास्त्ररक्षण । निश्चय के दृढ़ होने के पहिले शास्त्र रक्षण होय ।। १२ ।। क्योंकि श्रीमुख से आप ने आज्ञा की है "त्रैगुण्यविषया वेदा निस्वैगुण्यो भवार्जुन । निद्वंद्वा नित्यसत्वस्था निर्योगक्षेम आत्मवान् ।। यावानर्थ उदपाने सर्वतस्सम्प्लुतादके । तावान् सर्वेषु वेदेषु ब्राहमणस्य विजानतः ।। कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन । मा कर्मफलहेतुभूर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि ।।" हे अर्जुन वेद त्रिगुण विषय हैं तू तो तीनों गुणों की प्रवृत्ति से अलग होकर निन्द्र और अपने स्वरूप में स्थित हो और अपने योगक्षेम की चिंता मत कर । परंतु जब तक तेरे हृदय में अर्थों की तरंगे उठती हैं तब तक तेरा सब वेदों में ब्राहमण के कहे अनुसार कर्म में अधिकार है वहाँ भी कर्म के फल में तेरा अधिकार नहीं, इससे न तो तू फलों की इच्छा कर और न अकर्मी हो । तो जब तक कामना की तरंगे चित्त में उठती हैं और जब तक अनन्या भक्ति दृढ़ नहीं हुई है तब तक वेद माने, फिर छोड़ दे । १३ ॐ अन्यथा पातित्याशंका । अन्यथा पतित होने की शंका है । १३ । अर्थात् जो सिद्ध होने के पहिले कर्मों को छोड़ दे और न यह सिद्ध हो न वह तो व्यर्थ पतित हो जाता है, परंतु भगवत्कर्म करता हुआ अन्य कर्मों से च्युत जो सिद्ध न होगा तो भी उस जीव का नाश नहीं है और जीव का कल्याण है । जड़भरत जी का उदाहरण इसमें प्रमाण है, क्योंकि उन्होंने अपने मुख से कहा है, अहं पुरा भरतो नाम राजा विमुक्तदृष्टश्रुतसंगबंधः । आराधनं भगवत ईहमानो मृगोभवं मृगसंगाद्भतार्थः ।। सा मां स्मृतिर्मूगदेहेपि वीर कृष्णार्चनप्रभवा नो जहाति । अतो हयहं जनसंगादसंगो विशंकमानो विवृतश्चरामि" । श्री मुख से भी आप ने आज्ञा की है "पार्थ नैवेह नामुत्र विनाशस्तस्य विद्यले । नहि कल्याणकृत्कश्चिदुर्गति तात गच्छति" इत्यादि । १४ ॐ लोकोपि तावदेव किंतु भोजनादिव्यापारस्तवाशरीधारणावधि । लोक मी तभी तक है किन्तु भोजनादि व्यापार तो जब तक शरीर है तब तक है । १४ । इस में कितने लोक शंका करते हैं वरंच हँसते है कि जब खाना पीना आदि व्यवहार छूटता ही नहीं तो भारतेन्दु समग्र ८८२ KH