पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/९२७

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कर्म छोड़ देना यह अयुत्त है । परंतु इसी शंका के निवारणार्थ यह सूत्र है, भोजनादि व्यापार शरीररक्षार्थ है और जब तक शरीर है तब तक अवश्य कर्तव्य है । इनको जो छोड़ना हो तो विष खाके एक साथ ही न मर जाना । हाँ तदीयों को उन भोजनादि व्यापार की चिंता करनी अवश्यही नहीं चाहिए और जो कमों का कहो तो कमों का त्याग अनन्यता की पुष्टि के हेतु है क्योंकि बिना निःसाधन हुए मनुष्य अनन्य नहीं होता । इस से यह सिद्ध हुआ कि जब तक निश्चय न हो तब तक लोक और वेद दोनों मानना परंतु जब निश्चय दृढ़ हो जाय और कामनाओं की निवृत्ति हो जाय तब लोक और वेद दोनों छोड़ कर केवल "कृष्ण एवं गतिर्मम" यह उच्चारण करना । श्री विष्णुस्वामी-मत के बीजधारक श्री विल्वमंगलाचार्य ने भी यही कहा है। "संध्यावंदन भद्रमस्तु भवते भोस्नान तुभ्यं नमः भोदेवाः पितरश्च तर्पणविधो नाहं क्षमः क्षम्यतां । यत्र क्वापि निषद्य यादषकुलोत्तसस्य कंसद्विष : स्मारस्मारमघ हरामि तदलं मन्ये किमन्येन में" । दूसरा अनुवाक समाप्त हुआ । १५ ॐ तल्लक्षणानि वाच्यन्ते नानामतभेदात् । उस (भक्ति) के लक्षण विविध मतभेद से वर्णन किए जाते हैं। इस सूत्र में एक शंका है कि सूत्र का लक्षण 'स्वल्पाक्षरमसंदिग्धम्' ऐसा है। सूत्रो में कोई बात व्यर्थ नहीं होनी चाहिए यहाँ लक्षण तो आपही कहेंगे तो इस सूत्र की क्या आवश्यकता थी । ऐसा नहीं, यह सूत्र इस अर्थ का प्रतिपादक नहीं है कि हम आगे उस के लक्षण कहेंगे, वरन् ऐसी प्रतिज्ञा है कि संसार में इस प्रेम को लोग अनेक मत से मानते है परंतु वास्तव में वह प्रम नहीं है । प्रेम वही है जो शास्त्र में कहा जायगा, जैसा स्त्री पुरुष का कामनार्थ प्रेम वा अन्य किसी प्रकार की त्रिगुणात्मिका देवभक्ति प्रेम नहीं है, यद्यपि संसार में वह प्रेम कही जाती है और उनके अनेक प्रकार लोग लक्षण कहते हैं । यही बात अग्निम सूत्रों में सिद्ध करेंगे । १६ ॐ पूजादिष्वनुराग इति पाराशर्यः । भगवतपूजादिक में अनुराग रूप भक्ति यह श्री व्यासदेव का मत है। क्योंकि अनेक पुराणों में तथा जैमिनिसूत्र के भाष्य में बहुत कर्मविधान की प्रशंसा की है और पूजनादि केवल प्रेम के साधनस्वरूप हैं फलरूप नहीं । श्री महाप्रभु जी ने भी सेवानिर्णय में आज्ञा की है "कृष्णसेवा सदा कार्या मानसी सा परा मता' इत्यादि । जीवों के आसुरावेशनिवृत्यर्थ और मानसी-सेवा-सिद्ध्यर्थ वाहय सेवा (पूजादि) हैं, परंतु जब परम प्रमावेश होता है तब मानसी सेवा भी छूट जाती है । १७ ॐ कथादिष्विति गर्गः । कथादि में अनुराग गर्गाचार्य का मत है । अर्थात् भगवत्कधाश्रवण को मुख्य मान कर कथा में अनुराग करना यह नारद जी का मत नहीं है, प्रेम की उत्कंठा में जो भगवत्कथा से अनुराग हो वह ठीक है। १८ ॐ आत्मरत्यविरोधेनेति शाण्डिल्य: आत्मरति के अविरोध से अनुराग शांडिल्य का मत है। शांडिल्य भक्तिसूत्र के तृतीयाहिनक के तृतीय सूत्र में मत दिखाते हैं 'तामैश्वर्यपदा काश्यपः परत्वात', 'आत्मैकपदा बादरायणः', 'उभयपदां शांडिल्यः शब्दोपपत्तिभ्यां' । कश्यप का द्वैत और वादरायण का अद्वैत दिखाकर आप द्वैताद्वैत अवलंबन करते हैं परंतु द्वैत वा अद्वैत वा द्वैताद्वैत मत का अवलंबन करके भक्ति को अपने पूर्वमत के आग्रह से अपनी दीक्षा या संप्रदाय के अनुसार बलत्कार से भक्ति चलाना नारद का मत नहों । जब मतमतांतर के बाद में बुद्धि अभिनिविष्ट हो जायगी तो तीन प्रेमलक्षणभक्ति में अन्यमनस्क होने से भेद पड़ जायगा । इससे जिस भाव से निरोध हुआ हो उसी भाव से प्रेम में प्रवृत्त होना ही नारद का मत है । यदि हमारा यह भाव है कि ईश्वर एक है, आनंदमय है, हम उसके दासानुदास है, हमसे उससे कोई संबंध नहीं तो उसी भाव से भक्ति करनी और जो सर्वभाव हो तो सर्व भाव से भक्ति करनी, द्वैताद्वैत भाव पर चित्त आरूढ़ हो तो उसी भाव से उपासना करनी । अर्थात् जीव ईश्वर के भेदा-भेद के भगड़े में बुद्धि फंसा कर प्रेम में बाधा नहीं डालनी, तदीय सर्वस्व ८८३