पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/९२९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

DER ही उनका प्राण हूँ, मेरे हेतु उनने सब देह के व्यवहार छोड़ दिये हैं और जो लोग मेरे अर्थ लोक और धर्म को छोड़ देते हैं उनको मैं धारण करता हूँ। वे गोपियाँ उन के परम प्यारों से प्यारे मेरे दूर रहने से जब मेरा स्मरण करती हैं तो विरह की उत्कंठा से व्याकुल होकर अपने शरीर की सुध भी भूल जाती है । बड़ी कठिनता से और बड़े दुःख से मेरे बिना किसी रीति प्राण धारण करती है मेरे आने के संदेसे सुन कर जीती हैं, उन गोपियों की आत्मा मैं हूँ और वे मेरी हैं, इत्यादि । जिन श्री गोपीजन से परम भागवत उद्धव जी ने भी कहा - "अहोयूयं स्म पूर्णार्था भवत्यो लोकपूजिताः । वासुदेवे भगवति यासामत्यर्पितं मनः ।। दानव्रततपोथोगजपस्वाध्यायसंयमैः । श्रेयोभिर्विविधैश्चान्यैः कृष्ण भक्तिहिं साध्यते ।। भगवत्युत्तमश्लोके भवतीभिरनुत्तमा । भक्तिः प्रवर्तिता दिष्ट्या मुनीनामपि दुर्लभा ।। दिष्ट्या पुत्रानपतीन्देहान् स्वजनान् भवनानि च । हित्वा वृणीयुयं यत् कृष्णाख्यं परमपदम् ।। सर्वात्मभावो ऽधिकृतो भवतीनाम धोक्षजे । विरहेण महाभागा महान्मेनुग्रहः कृतः ।।' इत्यादि । और जब श्री उदव जी ने अपने ज्ञान कथनांतर श्री गोपीजन का स्वरूप जाना है तब यही माँगा है कि हम श्री वृन्दावन में गुल्मलता हो, यथा 'नायं नियोगजनितांतरते: प्रसादः स्वोषितां नलिनगंधरुचां कुतोन्यः । रासो त्सवे स्यभुजदंडगृहीतकण्ठलब्धाशिषां य उदगावजवल्लवीनाम ।। आसामहो चरणरेणुजुषामह स्या वृंदावने किमपि गुल्मलतौषधीनां । या दुस्त्यजं स्वजनमार्यपथं च हित्वा भेजुर्मुकुन्दपदवीं श्रुतिभिर्विमृग्यां ।। या वै श्रियार्चितमजादिभिराप्तकामैोगेश्वरैरपि यदात्मनिरासगोष्ठ्या ।। कृष्णस्य तद्भगवतश्चरणरविंद न्यस्तं स्तनेषु विजहुः परिरभ्य तापं ।।" श्री महाप्रभु जी ने संन्यासनिर्णय ग्रंथ में आज्ञा की है कि श्री गोपीजन प्रेममार्ग की गुरु हैं तथाच निरोधलक्षण ग्रंथ में आप ने श्रीगोपीजन तथा व्रज के गोपों का विरहानुभव प्राप्त होने की उत्कंठा दिखायी है । "यच्च दुःखं यशोदाया नन्दानीनां च गोकुले । गोपिकानां तु यददुखंतद्दुःखं स्यान्मम क्वचित् ।। गोकुले गोपिकानां च सर्वेषां व्रजवासिनाम् । यत्सुखं समभूतन्मे भगवान् किं विधास्यति ।। उद्धवागगमने जाता उत्सवः सुमहान्यथा । वृन्दावने गोकुले वा तथा मे मनसि क्वचित ।। इत्यादि । और "गोपी प्रेम की ध्वजा । जिन घनस्याम किए अपने बस उर धरि स्यामभुजा" "गोपीपदपंकजपराग कीजै महाराज रज कीजै आपुनेई गोकुलानगर को ।" "ये हरिरसओपी गोपी सब तियतें न्यारी । कमलनयन गोविन्दचंद की प्राणपियारी ।। निर्मत्सर जे सन्त तिनकी चूड़ामनि गोपी जे ऐसे मर्याद मेटि मोहनगुन गावै । क्यों नहिं परमानन्द प्रेमभक्ति सुखपावै ।।" "अहो विधिना तोपै अँचरा पसारि मांगौ जनम जनम दीजो याही ब्रज बसिबो । अहीर की जाति समीप नंदघर घरी घरी घनश्याम हेरिहेरि हँसिबो ।।" "बलि गुरु तज्यौ कंत ब्रजवनितन भइ जगमंगलकारी ।।" इत्यादि श्री सूरदासादिक परम अनुरागियों ने भाषा में भी श्री गोपीजन का पवित्र यश वर्णन किया है । परम अंतरंग श्री नागरीदास जी भी गाते है ।। जयति ललितादिदेवीय ब्रज अति अचा कृष्णपियकेलिआधीर अंगी। युगुलरसमत आनन्दमय रूपनिधि सकलसुखसमयकी छांहसंगी ।। गौरमुखहिमकिरणकी जु किरणावली श्रवत मधुगान हिय पियतरंगी । नागरीसकलसंकेतआकारिणी गनत गुनगननि मति होति पगी ।। भवतु ! इन श्री गोपीजन के अगणनीय गुण कहाँ तक लिखें । रसिक लोग स्वतः अनुभव करेंगे। २२ ॐ न तत्रापि माहात्म्यज्ञानविस्मृत्यपवादः । यहाँ भी माहात्म्यज्ञानविस्मृति का अपवाद नहीं । जहाँ प्रेम है वहाँ माहात्म्यज्ञान नहीं, जहाँ माहात्म्यज्ञान है वहा प्रेम नहीं ; परंतु श्री गोपीचन में दोनों बातें थी, क्योंकि उनको भगवत स्वरूप का ज्ञान नहीं था, यह शंका नहीं हो सकती । "अस्त्वेवमेतदुपदेशपदे त्वयीशे प्रष्ठो भवांस्तनुभृतां किल बंधुरात्मा" ।। 'व्यक्तभवान् ब्रजभयातिहरोभिजातो" 'न खलु गोपिकानंदनो भवानखिलदेहिनामंतरात्मदृक् ।। इत्यादि श्री गोपीजन के वाक्यों से उनका माहात्म्यज्ञान सिद्ध है। २३ॐ तदिहीनं जाराणामिव । उसके बिना जारों के समान है। अर्थात् जहाँ माहात्म्यज्ञान नहीं है वहाँ की प्रीति जारों की सी होती है । यद्यपि भगवान में ज्ञान वा अज्ञान से की हुई प्रीति निष्फल नहीं जाती तथापि यह लीला जहाँ पूर्ण प्रादुर्भाव है वहीं है परंतु माहात्म्य ज्ञानपूर्वक भक्ति में यह विशेषता है कि एक प्रस्तर में भी ईश्वर बुद्ध्यया सत्य प्रेम करने से फलदायिनी होती है । २४ ॐ नास्त्येव तस्मिस्तत्सुखसुखित्वं । M तदीय सर्वस्व ८५