पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/९३

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एक मतो क्यों कियो तुम सो तिन किये को फल क्यों नहि चाखो १२८ इन दुखियान को न चैन सपनेइँ मिल्यौ तासों सदा ब्याकल बिकल अकुलायगी । प्यारे 'हरिचंद जू की बीती जानि औध प्रान चाहत चले पै ये तो संग ना समायगी। देख्यो एक बारह न नैन भरि तोहिं यातें जौन जौन लोक जैहैं तहाँ पछतायगी । बिना प्रान-प्यारे भये दरस तुम्हारे हाय मरेह पै आँखें ये खुली ही रहि जायँगी ।१२९ हौं तो तिहारे सुखी सों सुखी सुख सों जहाँ चाहिये रैन बिताइये । पै विनती इतनी 'हरिचंद' न रूठि गरीब पै भौंह चढ़ाइये । सोउ न आवै न आप जो आइये । रूसिवे सों पिय प्यारे तिहारे दिवाकर रूसत है क्यों बतााइये ।१३० धारन दीजिये धीर हिए कुल-कानि को आजु बिगारन दीजिए । मारन दीजिए लाज सबै 'हरिचंद कलंक पसारन दीजिए । चार चवाइन को चहुँ ओर सो सोर मचाई पुकारन दीजिए। छाडि संकोचन चंदमुखै भरि लोचन आजु निहारन दीजिए ।१३१ प्रेम-तरंग भक्त-वृदय-वारिधि अगम झलकत श्यामहि रंग। विरह-पवन-हिल्लोर लहि उमग्यी प्रेमतरंग।। |९ अप्रैल, १८७७ की "कविबचन सुधा में प्रकाशित । मल्लिक चंद्र और कंपनी में तृतीय आवृत्ति छपी। प्रेम-तरंग खेमटा, साँझी का खेमटा श्याम सलोने गात मलिनियाँ । बड़े बड़े नैन भौह दोउ बाँकी जोबन सों इठलात । राधा जी हो बृषभानु-कुमारी । कोटि कोटि ससि नख पर वारौं कीरति-द्ग-उँजियारी। सुनत नहीं कछु बात कोऊ की राधे के ढिग जात सब ब्रज की रानी सुखदानी जसुदानंद-दुलारी । 'हरीचंद' कछु जान परै नहिं चूंघट मैं मुसकात ।४ 'हरीचंद' के हिये बिराजो मोहन-प्रान-पियारी ।१ लगत इन पुलवारिन में चोर । इन सों चौंकत रहियो सजनी छिप रहे चारों ओर । बिरह की पीर सही नहिं जाय । कहा करौं कछ बस नहि मेरो कीजे कौन उपाय । जबहिं निकसि अइहै गहबर सों लैहैं भूपन छोर । 'हरीचंद' इनसों बच रहिये ए ठगिया बरजोर ।५ 'हरीचंद' मेरी बाँह पकरि के लीजै आय उठाय ।२ मुख पर तेरे लटूरी लट लटकी । अकेली फूल बिनन मैं आई। संग नहीं कोउ सखी सहेली फूल देख बिमलाई । काली घूघरवाली प्यारी चुरवारी मेरे जिअ खटकी । छल्लेदार छबीली लांबी लखि या बन के काँटन सों मेरी सारी गइ उरभाई । नागिन सब रह सिर पटकी । 'हरीचंद' पिया आय दया करि अपने हाथ छुड़ाई ।३ प्रम तरंग ५३