पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/९३०

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उस से प्यारे के सुख से सुखी होना नहीं ही है। क्योंकि जारों की प्रीति अपनी कामना के अर्थ है तो उस में तत्सुखसुखित्व कहाँ से आवेगा । तीसरा अनुवाक समाप्त हुआ। २५ ॐ सा तु कमज्ञानयोगेभ्योप्यधिकतरा । वह (भक्ति) तो कर्म, ज्ञान और योग से भी अधिक है। "तपस्विभ्यो ऽधिका योगी ज्ञानिभ्यो ऽपि मतो ऽधिकः ।। कर्मिभ्यश्चाधिको योगी तस्माद्योगी भवार्डन ।। योगिनामपि सर्वेषां मद्गतेनांतरात्मना । श्रद्धावान् भजते यो मां स मे युक्ततमो मतः" ।। इन वाक्यों से भगवान श्रीमुख से ज्ञान और कर्म से योग को अधिक कह कर अपने भक्त को उससे भी अधिक कहते हैं और भक्ति ऐसी है कि भगवान मुक्ति देते है परंतु भक्ति नहीं । तथाहि "मुक्तिददाति कर्हि चित्रस्म न भक्तियोग ।" तथा "न साधयति मां योगी न सांख्यं धर्म उद्धव । न स्वाध्यायस्तपस्त्यागो यना भक्तिममोर्जिता ।। भक्त्याहमेकया ग्रायःदयात्माप्रियः सताम् । भक्तिः पुनाति मन्निष्ठा श्वपाकोनपि संभवात् ।।" और भक्ति में यह विशेष है कि कर्म, ज्ञान और योग इनमें अधिकारी अनधिकारी का बड़ा विचार रहता है परंतु इसमें किसी अधिकार का काम नहीं । श्रीमुखवाक्य प्रमाण है केवलेन हि भावेन गोप्यो गावः खगा मृगाः । ये न्ये मूढधियो नागाः सिद्धा मामीयुरंजसा ।।" २६ ॐ फलरूपत्वात् । क्योंकि फलरूपा है। ज्ञानाभिमानी लोग कहते हैं कि भक्ति का फल ज्ञान है, ऐसा नहीं । क्योंकि श्री भगवद्गीता में कहा है "अहंकारं बलं दर्प काम क्रोधं परिग्रहं । विमुच्य निर्ममः शान्तो ब्रह्मभूयाय कल्पते ।। ब्रह्मभूतःप्रसन्नात्मा न शोचति न कांक्षति । समः सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते परां" ।। हई है, संसार के सब प्रकारके साधन का फल केवल भगवत्कृपा है और वह बिना भक्ति सिद्ध न होगी तो दोनों प्रकार से भक्ति के बिना अन्य साधन व्यर्थ ही २७ ॐ ईश्वरस्याप्यभिभानद्वेषित्वाद्वैन्यप्रियत्वाच्च ।। ईश्वर को भी अभिमान से द्वेषित्व है और दैन्य से प्रियत्व है। अर्थात् कर्म ज्ञान और योग उनके साधकों को अपने अपने साधन का अभिमान होता है तो उनसे भगवान प्रसन्न नहीं रहता । हई है, वह तो निराश्रयों का आश्रय, निःसाधनों का साधन, दीनों का बंधु, पतितों का प्यारा और सर्व प्रकार से हीनों का सर्वस्व है । जिन लोगों को अपने साधनों का बल है उनको क्यों वह पूछेगा । सच है, जो स्त्री अपने सौंदर्य के और जारों के बल से धन कमा लेती है उसे पति क्यों पूछेगा, जो बालक आप धनोपार्जन में समर्थ है उसे माता पिता क्यों भोजन देंगे, जो सेवक अपने गुण से अपना योग क्षेम चला लेता है उसके स्वामी को क्या शोच है, विशेष कर ईश्वर से स्वामी को, जिसको सर्वदा दीन प्यारा है। उसके सामने तो जब अनन्य होकर सब साधन छोड़कर उससे कहोगे "सर्वसाधनहीनस्य पराधीनस्य सर्वथा । पापापीनस्य दीनस्य कृष्णएव गतिर्मम ।। हे नाथ ! मैं सब साधन से हीन हूँ और संसार के पचड़े में मग्न हूँ पापों से लदा हुआ हूँ और परम दीन हूँ अतएव हे नाथ ! हमारी तो तुमही गति हो ।" क्योंकि और किसी के सामने मुंह दिखाने के योग्य नहीं रहा, वेद को कैसे मुंह दिखाऊं, उनके वाक्यानुसार सर्वकर्मानह और पतित हो रहा हूँ, लोक को भी नहीं मुंह दिखा सकता क्योंकि लोक में सब से मुख्य रक्षणीय लज्जा का त्याग कर चुका हूँ और लोक के साधनों से विहीन हूँ हमारी तो और कोई शरण नहीं, महा निरवलम्ब हूँ, कोई हाथ पकड़ने वाला नहीं, अथाह समुद्र में डूबता हूँ अब इस समय तुम्हारे सिवाय और कोई गति नहीं, मेरी तो तुमही गति हो इत्यादि । तभी वह तुम्हारी ओर ध्यान करेगा, ऐसा श्रीमुख से कहा है "सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं ब्रज । अहे त्यां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि माशुचः" ।। सब धर्मों को छोड़ कर एक मेरी शरण आ, मैं तुझे सब पातकों से दूर करूँगा, शोच मत कर और यह वाक्य भी कब कहा है जब गीता का उपदेश कर चुके हैं तब ; इसको ठीक देने की भाँति कहा है। और आप अपने मुख से इस वाक्य का आग्रह दिखाते हैं "सर्वगुहयतमं भूयः शृणु से परमं वचः ।। इष्टोमि मे दृढ़मतिस्ततो वक्ष्यामि ते हितम्" । और भी उद्धव जी प्रति श्री भगवदाक्य है "अकिंचनस्य दांन्तस्य

भारतेन्दु समग्र ८८६