पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/९३२

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उस (भक्ति) के साधन आचार्य कहते हैं । पूर्वोक्त सूत्रों में भक्ति ही मुख्य है ऐसा कह अब उसके साधन दिखाते हैं। ३५ ॐ तत्तु विषयत्यागात्संगत्यागाच्च । वह (भक्तिसाधन) तो विषयत्याग और संगत्याग से होता है। जो कहो कि हम विषय और संग में लगे हुए भी सिद्ध हो जायगे तो यह नहीं हो सकता, क्योंकि श्री महाप्रभु जी ने अपने ग्रंथ बालबोध में "जीवाः स्वभावता दुष्टाः" इस वाक्य से जीव को स्वभावत: दुष्ट कहा है, तो जीव को आसुरावेश होने में कुछ विलंब नहीं लगता । श्रीहरिराय जी ने अपने ग्रंथ कामदोषनिरूपण में इस विषय की कैसी निंदा की है, आप लिखते हैं "दोषेषु प्रथमः कामो विविच्य विनिरूप्यते यस्मिन्नुत्पद्यते तस्य नाशक: सर्वथा मतः ।। विषयावेशहेतुत्वाद्विक्षेपोत्पत्तिकारणं । रजोगुणसमुत्पन्नो रजः प्रक्षेपको मुखे ।। ब्रहमावेशविरोधी च सद्बुदेर्वाधको मतः ! सत्कर्मनाशक सर्वप्राकृतासक्ति साधकः ।। चित्ताशुद्धि निदानत्वाच्चि- दुत्पत्तौ च बाधकः । भक्तिमार्गमहाद्वेष्टा वैराग्याभावसाधनात् ।। सर्वत्रापरितोषश्चानेन लोभसमुद्भवात् । यथाकथंचित्सांमुच्चयेंद्रियवैमुख्यकारकः ।। कामलोभी हरिप्राप्तिप्रतिबंधकपर्वतौ । तावुल्लंघय न शक्नोति गन्तुं कृष्णांतिकं जनः ।। संसारमोहहेतुत्वान्मनोवृषणसाधनम् । अत: सेवाविरोधी च यतः सा मानसी मतां ।। निरोधस्यमहान्छत्रुरन्यत्स्फूर्तिकरोयत: । गुणगानसपत्नोपि न रोचंते गुणा यतः । वैराग्यवाधका: सर्वे कामिनस्ते कथं प्रियाः । अतएव हि दृश्यन्ते गुणश्रवणवैरिणः ।। क्रौधः स्वकार्यकरणाल्लोभः प्रप्त्यापि शाम्यति । घृतहोमे वन्हिरिव कामो भोगेन बर्द्धते ।। कामेन नाशितमतिः प्रतिपिढे प्रवर्तते । अगम्यागमने चौर्ये तथैवाभक्ष्यभक्षणे ।। यतउत्पद्यते क्रोधो महब्बोहसमुद्भवः । लोभोपि जायते तस्मात्सचार्यविषये भवेत् ।। सोर्थ: पञ्चदशानर्थमूल तत्र प्रतर्तते । कामैनैवहि कार्पण्यं कामिनीषु सतां मतं । प्रर्थग्रन्ति यतस्तुच्छां प्रवेश्य वदने कर" इत्यादि कामदोष पर आपने एक ग्रंथ ही बनाया है तो काम मुख्य दोष है इसमें कोई संदेह नहीं, वरंच श्री गीता जी में काम ही के छुड़ाने के आग्रह से सुखपूर्वक भोजनादि का भी निषेध किया है । श्रीमुखवाक्य 'इन्द्रियाण्यनुशुष्यन्ति निराहारस्य देहिनः । रसवणं रसोप्यस्य परं दृष्ट्वानिवर्तते । इससे मक्ति के सब साधनों में मुख्य विषयों का त्याग है । संगत्याग के दोष ४३१४४।४५ सूत्रों में दिखावेंगे । ३६ ॐ अव्यावृतभजनात् । सतत भजन से। निरंतर शब्द यहाँ इस हेतु दिया है कि क्षण क्षण में जीव को आसुरावेश होता है और रजोगुण सतोगुण की तरंगें उठा करती हैं तो उसकी निवृत्ति के हेतु निरंतर भजन करै । जिस क्षण में नामोच्चारण का व्यवधान होगा उसी क्षण में आसुरावेश होगा अतएव भगवान श्री श्रीवल्लभाचार्य ने आज्ञा की है "तस्मात्सर्वात्मना नित्यं श्रीकृष्णः शरणं मम । बदभिरेव सततं स्थातव्यमिति मे मतिः" ।। अपने भक्तिवर्दिनी ग्रंथ में भी श्रीआचार्य जी ने "आव्यावृतो मजेत कृष्णं पूजया श्रवणादिभिः" इत्यादि लिखा है, भोजनादिक व्यवहार की रीति कुछ नित्य भजन भी कर लेना था जहाँ सब काम करते है वहाँ एक घंटा भर यह भी सही इत्यादि । उपेक्षा वा साधारण व्यवहार पूर्वक भजन का निषेध इस सूत्र से किया । जो कहा कि संसार के और कोई काम न करें सो यह नहीं कहते वरंच जब तुम आवश्यक कार्यों से छुटो तब और कोई व्यर्थ काम करने के बदले निरंतर भजन करो, जैसा जितने क्षण स्वाते हो उतनी देर तो निःसंदेह तुम कुछ नहीं कह सकते पर जैसे ही मुंह धो चुको भगवन्नामोच्चारण प्रारंभ करो । ३७ ॐ लोकेपि भगवतगुणश्रवणकीर्तनात् । लोक में भी भगवान के गुणों के श्रवण और कीर्तन से । "लोकेपि" अर्थात जब तक अव्यावृत भजन की सिद्धि न हो और लोक के व्यवहार में वित्त निरा मग्न हो तब तक भगवान के गुण कीर्तन करके और श्रवण करके निरंतर भजन का अभ्यास करें क्योंकि कोरे नामोच्चरण से वा ध्यान करने से भजन सुनने या गाने में सर्वसाधारण का चित्त विशेष लग सकता है। श्रीमहाप्रभुजी लिखते हैं। "यथा भक्तिः प्रवृद्धा स्यात्तथोपायो निरूप्यते । बीजभावे दृढ़ेतु स्यात्त्यागाच्छवर्णकीर्तनात् ।। बीजदाढ्यप्रकारस्तु गृहे स्थित्वा स्वधर्मतः । अव्यवृतो भजेत् कृष्णं पूजया श्रवणादिभिः ।। व्यावृत्तोपि हरौ चित्तं श्रवणादौ यतेत्सदा । तत:प्रेम तथासक्तिर्व्यसनच यदा भवेत्" अर्थात जो चित्त भक्ति में न रँगा हो तो श्रवणादिक में लगावे और जब उसमें कुछ प्रेम और आसक्ति होगी और श्रवणादिक का व्यसन हो जायगा तब आपही भक्ति का बीच दृढ़ हो जायगा । यद्यपि भक्ति के भारतेन्दु समग्र ८८८