पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/९३५

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४२ॐ तदेव साध्यतां तदेव साध्यताम् । उसी का साधन करो, उसी का साधन करो। हम लोग भी मुक्त कंठ से यही कहते हैं। पंचम अनुवाक समाप्त । ४३ ॐ दुःसंगस्सर्वथैव त्याज्यः । दुःसंग का सब रीति से त्याग करना । उसके त्याग में कारण कहते हैं ४४ ॐ कामक्रोधमोहस्मृतिभ्रंशबुद्धिनाशसर्वनाशकारणत्वात् । (क्योंकि वह) काम, क्रोध, मोह, स्मृतिभ्रंश, बुद्धिनाश तथा सर्वनाश का कारण है। ऐसाही श्रीमुख से भी कहा है "ध्यायतो विषयानपुन्सःसंगस्तेषूमजायते । संगात्सजायते काम: कामात क्रोधोभिजायते ।। क्रोधाद्भवति संमोहं संमोहात् स्मृतिविभ्रमः । स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात् प्रणाश्यति ।।" विषयों के सुख सोचते सोचते विषयसंग होता है और विषयसंग से अनेक प्रकार की कामना उत्पन्न होती है, और जब उस कामना के पूर्ण होने में कोई बाधक होता है तब क्रोध उत्पन्न होता है और जब उस क्रोध से अनिवार्य बाधकों का प्रत्यय नहीं कर सकता तब मोह हो जाता है और निराश हो के रोने लगता है । फिर इस दुःख से सब स्मृति भूल जाती है और जब स्मृति भूल जाती है तब इस की बुद्धि ठिकाने नहीं रहती और अन्यथा करने पर प्रवृत्त हुआ तहाँ उस का लोक परलोक सब नाश होता है" । इस से यह दिखाया कि सब बिगाड़ का कारण विषय और उसका संग ही है। ४५ ॐ तरंगायितापीमे संगात्समुद्रायन्ति । ये (काम क्रोधादिक) तरंगों की भाँति होकर भी संग से समुद्र से हो जाते हैं। दुःसंग में और भी दोष दिखाते हैं । यद्यपि जो लोग सन्मार्ग पर प्रवृत्त हैं उनको अहर्निश भगवदाराधन करते-करते काम क्रोधादिक की केवल तरंग आती है, जैसे नित्य विशयियों को सुरतान्त, तीर्थगमन, कथाश्रवण वा स्मशानदर्शन से ज्ञान की तरंग आती है । जितनी देर स्मशान पर बैठते हैं संसार नश्वर है, पुत्रादिकों में मोह अच्छा नहीं इत्यादि जान छाँटते हैं पर जहाँ घर आये तहाँ फिर संसारी काम में मग्न हो गये । वैसे ही अच्छे लोगों को प्रारब्धवशात् संग में जो कुछ कामक्रोधादिक की तरंगे आती भी हैं तो वे उतने ही काल रहती हैं जब तक कि वे अपना स्वरूप भूले रहते हैं तथापि यदि वेही सज्जन दुःसंग में पड़ जाये तो ये ही काम क्रोध उनको डुबा दें ४६ ॐ कस्तरति कस्तरति मायां ? यः संगांस्त्यजति यो महानुभावं सेवते यो निर्ममो भवति । कौन तरता है ? माया को कौन तरता है ? जो संगों को छोड़ता है, जो महानुभाव की सेवा करता है, जो निर्मोह होता है। यद्यपि महात्माओं की कृपा और संगत्याग मुख्य साधन हैं तथापि कुटुंबादिक का मोह भी एक बड़ी भारी बेड़ी है इससे इस का त्याग भी मुख्य ही है । ४७ ॐ यो विविक्तस्थान सेवते यो लोकबंधमुन्मूलयति निस्त्रैगुण्यो भवति योगक्षेमं त्यजति । जो एकांत स्थान सेवन करता है, जो लोकबंध की जड़ निकाल देता है, निस्वैगुण्य होता है और योग क्षेम छोड़ देता है। क्रमशः उसके साधन कहते हैं । यदि जन समाज में रहेगा तो पहले तो उसके अनवच्छिन्न भगवच्चिंतन में कोलाहलादि से अनेक बाधा पड़ेगी, दूसरे अनेक प्रकार के लोगों से मिलने से उनके व्यवहार में व्याप्त होने और उनके संग में पड़ जाने का डर है अतएव श्रीमुख से कहा है "विविक्तजनसेवित्वमरतिर्जनसंसदि" । और महात्माओं की भी आज्ञा है "विमुक्तबन्धा विचरेदसंगः ।" इत्यादि तथा लोक का बंधन छोड़ना भी एक बड़ा कठिन साधन है । कोई हँसे न, कोई नाम न धरे, 'धोती इतनी नीचे पहिने कि एड़ी न दिखाय'. नहीं निर्लज्ज कहावेंगे, मार्ग में जिस चाल से निकलते हैं वैसे ही निकलना चाहिए. इत्यादि लोककल्पित व्यवहार और भी महाबंधन के कारण होते हैं । इस हेतु सब लोकबंधन की मूल लज्जा को चौपट कर डालना "एका लज्जा परित्तज्य त्रैलोक्यविजयी भवेत्" । क्योंकि भक्ति के साधन में श्री मुख से आप ने आज्ञा की है "विलज्ज 'उद्गायति रौति नृत्यति मद्भक्तियुक्तो भुवनं पुनाति", तो सबके सामने कौन गावेगा कौन रोवैगा कौन 1 तदीय सर्वस्व ८९१ 59