पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/९३६

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->*RSE १ जिस पुस्तक में "प्रकाशते" ऐसा पाठ हे वहाँ अर्थ है कि प्रेम स्वरुप कभी किसी पात्र अधिकारी) yer माचेगा ? जो मेरा सा निपट वेहया होगा तथा जब लोक छुटा तब उससे भी बड़ा बंधन वेद वचा, उसके मिटाने के हेतु कहते हैं "निस्पैगुण्यो भवति" अर्थात सत्व, रज, तम इन तीनों गुणों की प्रवृत्ति से अलग हो जाता है । श्री मुख से भी कहा है "बैगुण्यविषया वेदा निस्त्रगुण्यो भवार्जुन ।।" परंतु जो कहो कि लोक घेद छोड़ के केवल अपना भला करना तो चार्वाक का मत है तो इसका खंडन करते हुए कहते हैं "योगक्षेम त्यजति" अर्थात् केवल लोक बेद नहीं छोड़ता वरंच अपने भी खाने पीने पहिरने रहने ओढ़ने बिछाने सोने इत्यादि का शोक छोड़ देता है "भोजनाच्छादने चिन्ता यथा कुर्वन्ति वैष्णवाः । विश्वम्भरो गुरुर्वेषां कि वासान् समुपेक्षते" और उसकी प्रतिज्ञा भी है "अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पयुपासते । तेषां नित्याभियुक्तानं योगक्षेम वहाम्यह" इत्यादि । क्योंकि जब सब छोड़ा फिर अपनी हाय हाय न अटी तो उस छोड़ने पर धिक्कार है। ४८यः कर्मफल त्यजते कर्माणि सन्यसति ततो निर्दन्द्रो भवति ।। जो कर्मफल छोड़ता है. है. कर्मों का त्याग कर के निर्द्वन्द्र होता है। निस्वैगुण्य होने का क्रमशः साधन कहते हैं, जब तक चित्त में अर्थों की तरंगे उठे तब तक कमों को नहीं छोड़ना, उसका फल छोड़ना और जब कामनाओं की निवृत्ति हो जाय तब उन कर्मी को भी छोड़ के निईन्द्र हो जाना, क्योंकि श्रीमुख से भी कहा है "निन्दो नित्यसत्वस्थो नियोगक्षेम आत्मवान् ।" "यावानर्थ उदपाने" इत्यादि ऊपर लिख आए हैं। ४५ ॐ वेदानपि सन्यमति केवलमविच्छिन्नानुरागं लभते । वेदों को भी छोड़ देता है और केवल अविछिन्न अनुराग (प्रीति) को पाता है । अब साधन विधा कर उसकी सिद्ध दशा लिखते है । जब सिद्ध हो जाता है तब वेदों का त्याग कर देता है और केवल अविच्छिन्न प्रेम पाता है ५०स तरति तरति स लोकान्तारवतीति । वह तरता है, वह तरता है. वह लोकों को तारता है नारद अपनी प्रतिक्षा दृढ़ करने के हेतु दो बार कहते हैं और निश्चय कराते है । वरंच यह कहते हैं कि वह आपही नहीं तरता किन्तु संसार को तारता है, "पुनाति भुवनवयं", "ती/कुर्वन्ति तीर्धाणि स्थान्तस्थेन "ते पुनन्त्युरुकाणेन", "मभक्तियुक्तो भुषन पुनाति", "स्वयं समुत्तीर्य सुदुस्तरं" इत्यादि वाक्यों से उनका संसार में पवित्र कर के तारना सिद्ध है। षष्ठ अनुणाक समाप्त । ५१ॐ अनिर्वचनीय प्रेमस्वरूप । प्रेम का स्वरूप कहा जा नहीं सकता । तो हम लोग क्या कहें। ५२ मुकास्वादनवत् । गूंगे के स्वाद की भांति । अर्थात केवल अनुभव सिद्ध है क्योंकि मीठे और सलोने में जो भेद वा स्वाद है वह कहा नहीं जा सकता । इतना ही कह सकते हैं कि खाके अनुभव कर लो । उसमें भी गूगे के स्वाद का क्या पूछना है । यहाँ वही कहावत है "बिना अपने मरे स्यगं नहीं सूझता ।" ५३ ॐ प्रकाश्यते क्कापि पात्रे । (तथापि) कभी किसी पात्र (अधिकारी) से प्रकाश किया जाता है। "वयुः स्निग्धस्य शिष्यस्य गुरवो गुहयमप्युत" इत्यादि वाक्य से सिद्ध है । तो इस में यह शंका दुई कि श्री नारद जी ने संसार में कोई पात्र पाए बिनाही इन सूत्रों का प्रकाश क्यों किया। इसके उत्तर में हम इतना ही कहा चाहते हैं कि यह किसी पात्र को उबेश्य करके नहीं कहा बरंच स्वतः मुंह से प्रेम के आवेश से निकल गमा गदाभूता", में स्वयं प्रकाश पाता है।

भारतेन्दु समग्र ८९२