पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/९३७

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प्रेम होगा वह प्रतिक्षण बढ़ता जायगा क्योकि उत्तम सौंदर्य और गुण का धर्म है कि जितना उसको देखते वा विचारते जाओगे उतनी ही उत्तम सूक्ष्मता प्रगट होती जायगी और जैसा इस प्रेम को संसार के दुःखादि बाधा कर देते है बेसी उसमें कोई बाधा नहीं होती क्योंकि भगद्वियोग के महादुःखसागर में ये सब संसार क्षुद दुःख इष जाते है । "सर्वपद अस्तिपदे निमग्न" और सूक्ष्म इतना है कि उसका उदाहरण नहीं दिया जा सकता, इसी हेतु परीक्षा को भी इससे हम सब प्रमियों के शिरोरलत्री महादेव जी ने फिर सती के उस देह को स्पर्शन किया । बोधा ने भाषा कवित्त में कहा है "अति छीन मुनाल के तारह से तेहि ऊपर पाँव दे आपनो है । सुचिवेध से नाको सकीन तहाँ परतीत को टांडो शदावनो है ।। कवि बोधा अनी घनी नेजर ते चढ़ि तापै न चित डगावनो है । यह प्रेम को पंच कराल महा तरवारकी धार पै धावनो है।" अवलोकयति" इत्यादि पाठहै वहाँ यह अर्थ है कि उसको अर्थात भगवान को प्रम द्वारा पाकर उसी को देखता है क्योंकि उस अनिर्वचनीय रूप को देख कर और देखने की इच्छा नहीं होती। सात्विकी, राजसी, तामसी तीन प्रकार की भक्ति वा श्रद्धा होती है । गुणत्रयविभाग वर्णन में श्रीभगवान ने इसका विस्तार कहा है या आत. जिज्ञास और अर्थीि इन तीनों के भजन के भेदसे मी गोणी भक्ति तीन प्रकार की हो गौणी (भक्ति) तीन प्रकार की, गुणभेद या आतांदि भेद से। जिज्ञासु से आर्त अच्छा होता है ज्योकि सतोगणी भक्ति सेवा आर्त के भजन से पद भक्ति मिलने की संभावना अनुभषरुप है। क्योंकि पात्र भर जाता है तब आप से आप ऊपर वह निकलला है । उस समय यह विचार नहीं रहता कि नीचे १ पात्रान्तर आधारभूत है या नहीं. यही दशा इस की भी है । जब उस परमानंद का उच्छवास होता है तब यहाँ भी पानापात्र - विचार नहीं होता, पागल की भांति गृह तत्व भी अपने आप पकने लगता है। ५४ ॐ गुणरहित कामनारहितं प्रतिक्षणभमानमषिच्छिन्न सूक्ष्मतरमनुभवरूपम् । (प्रेमस्वरूप) गुणों से रहित, कामनाओं से रहित, प्रतिक्षण में पुद्धिंगत, अविच्छिन्न, सूक्ष्मतर केवल कामनारहित, क्योकि कामना से यह भक्ति व्यपहार हो जायगी. इससे स्वर्गादि कामना के अर्थ गौजनस्वरूपा भक्ति या कामपूरणार्थ दपति के प्रेम का नाम प्रेम है, इस का निराकरण किया । श्रीमुख से भी कहा है, "न मय्यावेशितधियां कामः कामाय कल्पते । भर्जिता कथिता धाना भूयो श्रीजाय नेष्यते' इत्यादि और सांसारिक प्रेम से इस शुद्ध प्रेम में आधिक्या दिखाने के हेतु "प्रतिक्षण-वर्द्धमान" यह काही, क्योंकि संसार में प्रेम पहले तो बड़े चाव से होता है फिर प्रतिदिन अवस्था वालवा रूप गुण धन के घटने से यह प्रेम दिन दिन घटता जाता है और उस अशेषगुणसम्पन्न नित्यनष किशोर असीमगुणमंडित अतुलबलसीम परमानन्दमय में जो अनुभवरूप कहा है । पुराणांतर में कथा है किसी न किसी कल्प में औजानकी जी का घेष घर के भगवान की ते ५५ ॐ संग्राप्य तदेवावलोकयति तदेव शुणोति तदेय माधयति तदेव चिन्तयति । उसको पाकर उसी को देखता है, उसी को सुनता है, उसी को बोलता है और उसी का चिन्तन करता क्योकि फिर इसको कहने, सुनने और देखने को अपशिष्ट नहीं रहता और जहाँ "त प्राप्य तमेष ५६ ॐ गौणी विधा गुणभेदादादिभेदाता । मुख्याभक्ति का स्वरूप दिखाकर गौणी का स्वरूप कहते है - सत्व, रज, तम गुणों के भेद से जाती है। पिछले पिछले (भेद) से पहला कल्याण हेतु होता है ५७. उत्तरस्मादुत्तरस्मात्पूपूर्वपूर्वो श्रेयाय भवति । अति तमोगुण से रजोगुणी और रजोगुणी से सत्वगुणी अच्छी होती है, वैसे ही अार्थी से जिज्ञासु और सप्तम अनुमाक समाप्त । है। ५८ अन्यस्मात्सौलभ्य भक्तो। अन्य से भक्ति में सुलभता है। Rolette पूर्व में भक्ति का अनिर्वचनीय स्वरूप कहा है तो इस से जीयों को शझा हो कि ऐसी सूक्ष्म वस्तु के तदीय सर्वस्व ८९३