पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/९३८

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अधिकारी हम कैसे होंगे तो उस शंका से मिटाने के हेतु और जीवों को उस मार्ग पर आरूढ़ करने के हेतु कहते है कि और जितने साधन है सब से भक्ति (साधन) सुलभ है क्योंकि न इसमें विद्या का काम है न धन का, न वेद का, न आचार का, न उत्तमता का, न वर्ण का, क्योंकि गणिका को क्या विद्या थी, शवरी को क्या धन था, श्री गोपीजन ने कौन वेद पढ़ा था. गृध्र का कौन आचार था, गज की क्या उत्तमता थी और केवट का कौन वर्ण था । और सबसे बड़ी सुलभता यह है कि इस में कोई वाद विवाद नहीं रहता, क्योंकि - ५९ ॐ प्रमाणान्तरस्यानपेक्षत्वात् स्वयंप्रमाणत्वात् । (यहाँ) अन्य प्रमाण की अपेक्षा नहीं, स्वयमेव प्रमाण है। क्योंकि वाद की और प्रमाण की इस में आवश्यकता नहीं, जब अपने चित्त में प्रेम का उदय हुआ तब उससे बढ़ कर और प्रमाण क्या चाहिए । प्रमाणान्तर को अनपेक्षता दिखाकर भक्ति में और भी उत्तमता दिखाते ६०ॐ शान्तिरूपात्परमानन्दरूपाच्च । शान्ति रूप और परमानन्द रूप है। अर्थात इस के शान्ति रूप होने से रजोमय तमोमय नानाप्रकार के वाद और विकल्प चित्त में आप ही नहीं होते और परम शांतिरूप है इसी से परमानन्द रूप है क्योंकि परमानन्द वहाँ ही है जहाँ वादादि से प्रतिबंध नहीं और "परमानन्द" शब्द कहने से भगवान की और भक्ति की एकता दिखाई क्योंकि ईश्वर का भी परमानन्द स्वरूप है-- "आनन्दमयोभ्यासात्", "आनन्दमात्रकरपादमुखोदरादि", "आनन्द हम", "आनन्द ब्राहमण विद्वान्" इत्यादि श्रुति से भगवान का आनंद स्वरूप सिद्ध है और जीव में आनंद का तिरोभाव है तो पुनः आनंद उद्दीपन के साधन ज्ञानादि कर के परमानंदमयी भक्ति के आविर्भाव बिना जीव के ताप की निवृत्ति नहीं होती। और वेदांतियों ने ज्ञान का फल आनंद कहा है, ज्ञान को स्वतः आनंदस्वरूप नहीं कहा है। और भक्ति का स्वरूप आनंद तो सूत्र में कहते ही हैं। अब जो जीव को शंका हो कि हम ने तुम्हारे कहने अनुसार योगक्षेमादिक सब छोड़ा परंतु उस लोक की गति क्या होगी इस शंका के मिटाने के हेतु कहते हैं। ६१ ॐ लोकहानी चिंता न कार्या निवेदितात्मलोकवेदशीलत्वात् । लोक हानि में चिंता नहीं करना, क्योंकि (भक्तों ने) आत्मा, लोक वेद, शील सब ईश्वर में अर्पण किया अर्थात् जो वस्तु कोई किसी को दे देता है फिर उसकी हानि का सोच देने वाले को नहीं होता, जिसको देता है उसी को होता है । हम लोगों को लोकादि हानि का सोच क्यों करना चाहिए. उसका सोच वह (भगवान्) आप करेगा अतएव श्री महाप्रभु जी ने आज्ञा की है "चिंता कापि न कार्या निवेदितात्मभिः कदापि भगवानपि पुष्टिस्थो न करिष्यति लौकिकी च गति । निवेदनं तु स्मर्तव्यं सर्वदा तादृशैजनैः ।। सर्वेश्वरश्च सर्वात्मा निजेच्छात: करिष्यति । सर्वेषां प्रभु सम्बन्धो न प्रत्येकमितिस्थितिः ।। अतोन्यविनियोगेपि चिन्ता का स्वत्य सो पि चेत् । अज्ञानादथवा ज्ञानात्कृतमात्मनिवेदनं ।। यैः कृष्णस्तत्कृतप्राणैस्तेषां का परिवेदना" इत्यादि अथवा चतुः श्लोकी में फिर आप आज्ञा करते हैं कि ' 'एवं सदा स्व कर्तव्यं स्वयमेव करिष्यति । प्रभुः सर्वसमर्थोहि ततोनिश्चिन्ततां व्रजेत् ।। यदि श्री गोकुलाधीशो धृतः सर्वात्मना हृदि । ततः किमपरं ब्रूहि लौकिकैदिकैरपि ।।" अब जो वसा दृढ़ नियम न सिद्ध हुआ तो क्या करना इसका साधन लिखते हैं ६२ ॐ न तदसिद्धौ लोकव्यवहारो हेयः किन्तु फलत्यागस्तत्साधनं च कार्यमेव । उस (निश्चय) की असिद्धि में लोकव्यवहार को नहीं छोड़ना, किन्तु फल छोड़ना, वरंच उस (फल) का साध अवश्य ही करना । क्योंकि विश्वास दृढ भए बिना लोक-व्यवहार छोड़ने में वही कहावत होगी "न घर के हुए न घाट के" परंतु उसका फल छोड़ देना अर्थात् लोकव्यवहार को असार समझना और विश्वास की सिद्धि के साधन में प्रवृत्त होना । उसके कौन कौन साधन हैं सो आगे दिखाते हैं ६३ ॐ स्त्रीधननास्तिकवैरिचरित्रं न श्रवणीयम् । १. एवं सबै; स्म कर्तव्यमिति पाठ भेद ।

भारतेन्दु समग्र ८९४