पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/९४

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20. 'हरीचंद' जंजीरन जकड़ी ये सखी राधा-बर कैसा सजीला । अंखियाँ अब छूटहि न अटकी ।६ देखो री गोइयाँ नजर नहिं लागे कैसे नैया लागे मोरी पार खिवैया तोरे रूसे हो । कैसा खुला सिर चीरा छबीला । औड़ी नदिया नावरि झंझरी जाय परी मझधार । वार-फेर जल पीयो मेरी सजनी देइ चुकी तन मन उतराई छोड़ि चुकी घर-बार । मति देखो भर नैना रंगीला । कहि 'हरिचंद' चढ़ाइ नेवरिया करो दगा मति यार ।७ 'हरीचंद' मिलि लेहु बलैया सखी बंसी बजी नंद-नंदन की । अंगुरिन करि चटकारि चुटीला ।१६ श्री बृन्दाबन की कुंज-गलिन में पीलू सुधि आई साँवर घन की । का करौं गोइयाँ अरुभि गई अँखियाँ । मगर भई गोपी 'हरि' के रस कसे छिपा दिपन हि सजनी बिसरि गई सुधि तन मन की 1८ छैला मद-मानी भई मध-मगियाँ । काफी मांवगे रुप देख परबस भई कठिन भई आजु की रतियाँ । इन कल-लाज ननिक नहि खयाँ । पिया परदेस बहुत दिन बीते नहीं आई पतियाँ । हरीचंद' बदनाम भई मैं तो बिरह सतावत दिन दिन हमको कैसे करौं बतियाँ । नाना मारन सब सँग की सखियाँ ।१७ आय मिलौ पिय 'हरीचंद' तुम लागूं मैं तोरी छतियाँ ।९ नयन की मत मागे नारिया । बजन लागी बंसी लाल की । मैं तो घायल बिनु चोट भई रे कहर करेजे करिया । हौ बरसाने जात रही री मुधि आई बनमाल की । काहे को सान देत भौहन की काजर नयनन भरिया । बिसरत नाहिं सखी वह चितवनि सुन्दर स्याम तमाल की। हरीचंद हँसि कंठ लगायो बिसरि गई सुधि बाल की।१० 'हरीचंद बिन मारे मरत हम मत लाओ तीर कटरिया।१८ जिय लेके यार करो मत हांसी । झिंझोटी तुमरी हँसी मरन है मेरो यह कैसी रीत निकासी । रंगीले रंग दे मेरी चुनरी । आइ मिलौ गल लागौ पिअरवा अँखियाँ दरसन-प्यासी। स्याम रंग से रंग दे चुनरिया 'हरीचंद' उनरी ।११ 'हरीचंद नहिं तो जुलफन की मरिहैं दै गल-फाँसी ।१९ होली खेमटा ठुमरी, सहाना छबीले आ जा मोरी नगरी हो । आज तोहिं मिल्यो गोरी कुंजन पियरवा । साँवरे रंग मनोहर मूरति बाँधे सुरुख पगरी हो । काहे बोले झूठे बैन कहे देत तेरे नैन 'हरीचंद' पिय तुम बिनु कैसे रैन कटे सगरी हो ।१२ देखु न बिथुरि रहे मुख पर बरवा । चलो सोय रहो जानी, अँखियाँ खुमारी से लाल मई। अंगिया के बंद टूटे कर सों कॅकन छूटे सगरी रैन छतिया पर राखा अधरन का रस लीना । अपने पीतम जी के लागी है तू गरवा । 'हरीचंद' तेरी याद न भूलै ना जानौं कहा कीना ।१३ 'हरीचंद' लाज मेटी गाढ़े भुज भर मेंटी दादरा द्वै द्वै के उपटि भये चार चार हरवा ।२० सैयाँ बेदरदी दरद नहिं जाने । काहू सों न लागें गोरी काहू के नयनवाँ । प्रान दिए बदनाम भए पर नेक प्रीति नहिं माने । हँसै सुनि सब लोग मिटे ना बिरह-सोग 'हरीचंद' अलगरजी प्यारा दया नहीं जिय आने ।१४ पूछे ते न आवै कछ मुख सों बयनवाँ । सोरठ 'हरीचंद' घबराय बिपति कही न जाय जवनियाँ मोरी मुफुत गई बरबाद । छुटै खान-पान मिटें चित के चयनवाँ ।२१ सपन्यों में सखियो नहि जान्यो सैयाँ-सुख मेजिया-सवाद। ठुमरी बारी बैस सैया दूर सिधारे दे गए बिरह-बिखाद । भए हो तुम कैसे ठीक कुँअर कन्हाई । हरीचंद' जियरे में रहि गईं लाखन मोरी मुराद ।१५ | मट्टकी मोरी सिर सों पकि ताप हँसत हौ ठाढ़े, भारतन्दु समग्न ५४