पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/९४२

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Hasi ho खसादयः । येन्ये च पापा यदुपाश्रयाश्रयाः शुध्यन्ति तस्मै प्रभविष्णवे नमः ।' पञ्चम स्कन्ध में श्रीहनुमद्वाक्य "न जन्म नूनं महतो न सौभगं न वाइ न बुद्धि कृतिस्तोषहेतुः । तैर्यदिशिष्टानपि नो वनौकसां चकार सख्ये बत लक्ष्मणाग्रजः" इक्ष्वाकुरैलमुचुकुन्दविदेहगाधीरध्वम्बरीषसगरा गयनाहुषाद्याः । मांधात्रलर्कशतधन्वनुरंतिदेव- देवव्रतो बलिरमूर्तरयो दिलीपः ।। सौभर्युतकशिविदेवलपिप्पलादसारस्वतोदवपराशरभूरिषेणाः । येन्ये विभीषण हनूमदुपेन्द्रदत्तपार्थाष्टिषेणविदुरश्रुतदेववर्याः ।। ते दै विदंत्यतितरंति च देवमायां स्त्रीशूद्रहणशबरा अपि पापजीवा: यद्यद्गुणक्रमपरायणशीलशिक्षास्तिर्यग्जना अपि किमु श्रुतधारणा ये ।।" इत्यादि वाक्यों से तदीयों को समता स्पष्ट है और वैष्णवे जातिबुद्धि अर्थात् वैष्णव में जातिभेद करना यह ६४/महा अपराधों * में से एक गिना है और भागवतों के लक्षण में भी कहा है "न यस्य जन्मकर्माभ्यां न वर्णश्रमजातिभिः । सज्जतेस्मिन्नहंभावो देहे वै स हरे: प्रियः" । और श्री हरिराय जी ने अपने ग्रंथ शिक्षापत्र में भी ऐसा ही लिखा है। इसी से वैष्णवों को परस्पर जाति, विद्या रूप, कुल धन और क्रिया आदि का भेद कदापि नहीं करना क्योकि जिस समय वह तदीय हुआ उसी समय सब गुण पूर्ण हो गया । "यस्यास्ति भक्तिर्भगवत्यकिंचना सर्वैर्गुणैस्तत्र समासते सुराः" इत्यादि वाक्यों से सिद्ध है। ७३ ॐ यतस्तदीयाः । क्योंकि (ये) उसके हैं। पूर्वोक्त अभेद मानने का हेतु देते हैं कि जब तुम तदीय हो और वे भी तदीय हैं तब परस्पर न्यूनाधिक भेद कहाँ रहा, सब एक से भाई हुए और जब सब विद्या, जाति, क्रिया इत्यादिकों का मूल पवित्र करने वाला भगवान इन के हृदय में बैठा है तो वे आप ही सर्वोत्तमोत्तम हो गए । नवम अनुवाक समाप्त । १(१) भगवान में देवविशेष या तत्वविशेषबुद्धि (२) शास्त्रों में ग्रंथ अर्थात् पौरुषेय-बुद्धि (३) वैष्णव में जाति- बुद्धि (४) गुरु में साधारण मनुष्य-बुद्धि (५) प्रतिमा में शिलाबुद्धि (६) प्रसाद में खाद्यबुद्धि (७) चरणोदक में जलबुद्धि (८) तुलसी में वृक्षसाधारण बुद्धि (९) गऊ में पशुसाधारण बुद्धि (१०) भागवत और गीता में ग्रंथसाधारण बुद्धि (११) मगवल्लीला में मनुष्यकृत्य बुदि (१२) सांसारिक प्रेम वा स्त्रीसुख में लीला गान वा स्मरण (१३) श्रीगोपीजन में परकीया-भावना (१४) रासलीला में कामबुद्धि (१५) महोत्सव में स्पर्शास्पर्शबुद्धि (१६) नास्तिक-वादावलंबन (१७) संदेहपूर्वक धर्माचरण (१८) अश्रद्धापूर्वक धर्माचरण वा धर्म में आलस्य करना (१९) वैष्णव का बाहय चरित्र देखना (२०) महात्माओं के चरित्र पर गुण दोष विचारना (२१) अपने को उत्तम समझना (२२) किसी देवता या शास्त्र की निंदा (२३) भगवद् विग्रह के सामने पीठ लगाकर बैठना (२४) जूता पहने, (२५) माला पहने, (२६) छड़ी लिए. (२७) नील वस्त्र पहने (रेशम में नील शुद्ध है) (२८) बिना दंतधावन किए, (२९) मलत्याग मैथुनादि के पीछे बिना वस्त्र बदले मंदिर में जाना, (३०) भगवद्विग्रह के सामने हाथ पैर हिलाना (३१) ताम्बूलादि खाना, (३२) ऊँचे हँसना, (३३) कुचेष्टा करना, (३४) स्त्री को घूरना, (३५) क्रोध करना (३६) दूसरे को आदर के हेतु अभिवादन करना, (३७) दुगंध वस्तु खाकर तथा पहनकर, बिना गंध दूर मए वा अजीर्ण भए पर जाना, (३८)मत्त होना अर्थात् नशा सेवन करके जाना, (३९) किसी का अपमान करना वा मारना, (४०) काम क्रोधादि चेष्टा करना (४१) घर आए मनुष्य को विशेष करके संत की अभ्यर्थना न करना (४२) सेवा वा धर्म वा पांडित्य अपने में मानना वा सुकृत को अपना किया समझना (४३) नास्तिकों का, लपटों का, हिंसकों का, लोभियों का, मिथ्याचारियों का संग करना (४४) विपत्ति परमेश्वर ने दिया यह बुद्धि करना (४५) धर्म के बल पाप करना (४६) किसी को तृण मात्र भी कष्ट देकर अपने को धार्मिक समझना (४७) स्त्री पुत्र मृत्य परिवार आश्रित दीन संत की उपेक्षा (४८) वस्तु को अपने उपयोगी समझकर सेवा में देना वा असमर्पित वस्तु ग्रहण करना (४९) इष्टदेव की शपथ खाना (५०) भगवान्, धर्म वा नाम बेंचकर द्रव्य कमाना (३१) अन्य देवता से आशा करना (५२) धर्मशास्त्र की मर्यादा का उल्लंघन (५३) वह दशा भए विना ज्ञान हाँकना वा वैसा आचरण करना (५४) देवचरित्र की प्रति आचरण करना (५५) संप्रदायभेद से वैष्णवों को ऊंचा नीचा समझना (५६) अवतार की तारतम्यदृष्टि से निंदा करना (५७) हंसी में भी किसी को तुम परमेश्वर हो यह कहना (५८) परमेश्वर को कदापि किसी कारण से भी अणुमात्रमी परतंत्र समझना (५९) लोभ से किसी को चरणामृत वा प्रसाद देना (६०) भगवान के चित्र मूर्ति नाम आदि की अवज्ञा करना या कहना (६१) किसी जीव को किसी प्रकार भारतेन्दु समग्र ८९८