पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/९४४

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"भक्त्या सदानन्द हृदिस्थं निर्गत बहिः ।। सदानन्दमयस्यापि कृपानन्द:सुदुर्लभः । हृद्गतःस्वगुणान् श्रुत्वा पूर्णः प्लावयते जनान् ।।" और श्री महाप्रभु जी का "स्वयशोगानसंहृष्टहृदयाम्भोजविष्टः । वश:पीयूषलहरीप्लावितोन्यरस: पर: ।।" ८१ ॐ त्रिसत्यस्य भक्तिरेव गरीयसी भक्तिरेव गरीयसी । त्रि (कालमें) सत्य (भगवान) की भक्ति ही सब में (साधनों में) बड़ी है, भक्ति ही बड़ी है । "भक्त्यैव तुष्टिमभ्येति विष्णुर्नान्येन केनचित् । प्रीयतेमलया भक्त्या हरिरन्यद्विडम्बनं ।।" "भक्त्या तुतोष भगवान् गजयूथपाय". "भक्त्याहमेकया ग्राहयः" "भक्तिः पुनाति मन्निष्ठा", मामभिजानाति", "भक्त्यैकलभ्यो पुरुषोत्तमोहि", "भक्तिमान् यः स मे प्रियः". भक्तियोगेन सेवते", "भक्त्यैकलभ्ये पुरुषे पुराणे मुक्त्यै. किमर्थं क्रियते प्रयत्नः", "धर्मार्थकामैः किं तस्य मुक्तिस्तस्य करे स्थिता । समस्तजगतां मूले यस्य भक्तिः स्थिरा करे ।।" 'ब्रहमसंस्थोमृतत्वमेति, मयि भक्तिर्हि भूतानाम- मृतत्वाय कल्पते", "तन्निष्ठस्य मोक्षापदेशात्", "तत्संस्थस्यामृतोपदेशात्". "सकृदेव प्रपन्नाय तवास्मीति प्रयाचते । अभयंसर्वभूतेभ्यो ददाम्येतव्रतं मम ।।" "भक्त्या त्वनन्यया शक्यः", "भक्त्यालभ्यस्त्वनन्यवा". "श्रद्धावान् भजते यो मां स मे युक्ततमो मतः", "भक्तिप्रियोमाधवः", "मयि संजायते भक्ति: कोन्योस्यार्थोव- शिष्यते", "योमे भक्त्या प्रयच्छति ।। तदहंभक्त्युपहृतं", "अण्वप्युपहृतं भक्त्यैः प्रेम्णा भूर्येव मे भवेत्', 'श्रेयोभिर्विविधैश्चान्ये: कृष्णे भक्तिहिं साध्यते", अपि यः सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक", "अहं भक्तपराधीनो इत्यादि वेद, उपनिषत्, श्रीमुखवाक्य, रामायण, भारत, स्मृति, व्याससूत्र, शांडिलयसूत्र, पुराण और तन्त्रों से सिद्ध है कि सब साधनों में मुख्य साधन केवल भक्ति ही है । विस्तरभयात विशेष प्रमाण नहीं दिया । ८२ ॐ गुणमाहात्म्यासक्ति १ रूपासक्ति २ पूजासक्ति ३ स्मरणासक्ति ४ दास्यासक्ति ५ सख्यासक्ति ६ कान्तासक्ति ७ वात्सल्यासक्ति ८ आत्मनिवेदनासक्ति ९ तन्मयतासक्ति १० परमविरहासक्ति ११ रूपा एकधाप्येकादशधा भवति । (यह भक्ति) एक रूप ही होकर गुणमहात्म्यासक्ति, रूपासक्ति, पूजासक्ति, स्मरणासक्ति, दास्यासक्ति.. सख्यासक्ति, कान्तासक्ति, वात्सल्यासक्ति, आत्मनिवेदनासक्ति, तन्मयतासक्ति और परमविरहासक्ति रूप से एकादश प्रकार की होती है। इससे श्रवणादिक नवधा भक्ति गौण हैं, इसका निषेध किया क्योंकि नारद जी का मत है कि भक्तिबीच के हृदय में उत्पन्न होने के पूर्व जो प्रवणादिक हैं उनको श्रवणभक्ति नहीं कह सकते और यह पूर्वोक्त जो श्रवणादिक हैं वे शुद्धा भक्ति से भिन्न नहीं है अतएव प्रति शब्द के साथ आसक्ति का शब्द दिया है । जो यह शंका करो कि जिनको प्रेम सिद्ध है उनको तो पूर्वोक्त्त आसक्तियाँ होगी सो, नहीं यह विशेष आसक्ति परत्व है। जैसे प्रेमियों को अपने प्रेम पात्र का सबही अंग सुन्दर लगता है तथापि प्रति प्रेमी को अपने प्रेमपात्रों में कोई अंग वा चेष्टा विशेष मोह के विषय होते हैं, वैसे ही पूर्ण प्रेमियों को यद्यपि सबही आसक्तियाँ सिद्ध हैं तथापि किसी को किसी में विशेष रुचि है किसी को किसी में है । श्रवणादिकों को गौणी भक्ति मानने में एक बड़ा दोष यह है कि जैसे अर्जुन सख्य के वा श्री हनुमान जी दास्य के अधिकारी हैं तो जिसके मत में यह भक्तियाँ गौणी हैं उन के मत से ये भक्त भी गौण हुए । तो इस सूत्र से शुक, प्रहलाद, हनुमान, अर्जुन, बलि, विभीषण आदि एक एक भक्ति के विशेष अधिकारी महानुभावों को गौण भक्त कहने वालों का मत परास्त हुआ और सिद्ध हुआ कि प्रेम एक ही वस्तु है जो केवल रुचि की विचित्रता से अलग अलग छलावे दिखाता है । इनमें तन्मयतासक्ति तथा परम विरहासक्ति वियोगी भक्तों को सिद्ध है, शेष आसक्तियाँ सयोगी और वियोगी दोनों को सिद्ध हैं । और किसी किसी भक्त को एक एक आसक्ति सिद्ध है, परंतु किसी को दो तीन भी सिद्ध हैं और श्री गोपीजन को तो सभी सिद्ध है। १ "गुणमहातम्यासक्ति" - जैसा परिक्षित को, नारद को तथा हनुमान जी को और श्रीपृथुराजा को. जिसने केवल हरिगुण-श्रवण के अर्थ दस हजार कान मांगे थे । परीक्षित ने कहा है नैषातिदुःसहा क्षुन्मां त्यक्तोदमपि वाधते । पिवंत त्वन्मुखांभोजच्युतं हरिकथामृतम् ' ।। नारद जी का वाक्य देवदत्तामिमां वीणां स्वरब्रमविभूषिता । मूछयित्वा हरिकथां गायमानश्चराम्यहम्", "प्रगायत: स्वीवीर्याणि तीर्थपादः पृथुश्रवाः । भारतेन्दु समग्न ९००