पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/९४६

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परिष्वक्तो ऽग्रजो यथा ।।" जिसके चावल भगवान ने आप ही छीन कर खाए और "सख्युः प्रियचिकीर्षया". "परमप्रीणनं सखेः", "पयके भ्रातरौ यथा", दाशार्हकाणामृषभः सखा मे", "सुहृत्कृतं फलवपि भूरिकारि", "तस्यैव मे सौहृदसख्यमैत्री". "एवं स विप्नो भगवत्सुहृत्तदा" इत्यादि । गरुड़ की जैसी "भगवान भगवत्प्रियः, विनतासुतांसेविन्यस्तहस्तमपरेण धुनानमन्ज ।" तथा हनुमान जी को "न जन्म नूनं महतो न सौभग नवाग न बुद्धि कृतिस्तोषहेतुः । तैर्यद्विसृष्टानपि नोवनौकसश्चकार सख्ये वत लक्ष्मणाग्रजः ।।" तथा सुग्रीव की (बाल्मीकि रा. किष्किन्धा षष्ठ सगं श्लोक १२) "तमब्रवीत्ततो रामः सुग्रीवं प्रियवादिनं । आनयस्व सखे शीघ्रं किमर्थं प्रविलम्बसे ।।" तथा सुग्रीव का वाक्य (७ सर्ग श्लोक १३) "हितं वयस्यभावेन त्रु वे नोपदिशामि ते । वयस्यतां पूजयन्मे न त्वं शोचितुमर्हसि' तथा श्रीरामजी का वाक्य (७ सर्ग श्लोक १६) "कर्तव्य यद्वयस्येन स्निग्धेन च हितेन च । अनुरूपं च युक्तञ्च कृतं सुग्रीव तत्त्वया ।। एष च प्रकृतिस्थोहमनु- नीतस्तया सखे । दुर्लभोहीदृशो बंधु रस्मिन् काले विशेषतः ।।" इत्यादि । ७"कान्तासक्ति" - यथा श्री गोपीजन को । यद्यपि श्री गोपीजन को सभी आसक्तियाँ सिद्ध हैं यह पहले लिख आए हैं और विरहासक्ति में निरूपण भी करेंगे तथापि श्री गोपीजन की आसक्तियों में कान्तासक्ति अंगीभाव से है जो "कृष्णं विदुः परं कान्त' इत्यादि वाक्यों से सर्वत्र सिद्ध है। ८ "वात्सल्यासक्ति" - श्रीनन्द, यशोदा, कौशल्या, दशरथ, सुमित्रा, कश्यप, अदिति, धनिष्ठा, श्री वृषभानु, कीर्तिदा, पूर्णमासी इत्यादि को । ९ "आत्मनिवेदनासक्ति" - यथा बलि को "सर्वस्वात्मनिवेदने बलिरभूत् ।" १० "तन्मयासक्ति" यथा श्री शिव जी को, जिनका अभेद पुराणों से सिद्ध है। ११ "परमविरहासक्ति" यथा श्री उग्रवादि को "योगेन कस्तद्विरहं सहेत" इत्यादि । तथा श्रीगोपीजन को अथ श्रीगोपीजन में सभी आसक्तियाँ सिद्ध हैं यह दिखाते हैं। १ 'गुणमाहात्म्यासक्ति" श्री गोपीगीत, वेणुगीत, युगलगीत. भ्रमरगीत आदि से सिद्ध है ।। २ "रूपासक्ति" गोपीनां परमानन्द आसीद्गोविन्ददर्शने । क्षणं युगशतमिव यासां येन विनाभवत् ।। अपरा- निमिषत्दृग्भ्यां जुषाणा तन्मुखांबुजं । आपीतमपि नातृप्यत्सन्तस्तच्चरणं यथा ।।" इत्यादि से । ३ "पूजासक्ति" फल फूलादि दान से ४ "स्मरणासक्ति" "स्मरंत्यः कृष्णचेष्टितं इत्यादि से । ५ "दासासक्ति" "भवाम दास्यः श्यामसुन्दर ते दास्यः" "शिरस्सु च किंकरीणां' इत्यादि से । ६ "सख्यासक्ति" "सखउदेयिवान्. भजसनेभवत् कितवयोषितः इत्यादि से । ७ "कान्तासक्ति" "कान्तकामद", "प्रष्ठोभवान्", "दयितदृश्यतां", "सुरतनाथते' इत्यादि वाक्यों से । ८'वात्सल्यासक्ति" "गोप्यः सुमृष्टमणिकुण्डल" से, दामोदरलीला आदि में स्पष्ट । १ "आत्मनिवेदनासक्ति" 'य: पत्यपत्य' इत्यादि श्लोकों से । १० "तन्मयतासक्ति" "कृष्णोह" इत्यादि वाक्यों में । ११ "परमविरहासक्ति" "क्षणं युगशतमिव" इत्यादि से । और इन श्री गोपोजन को नित्य लीला में श्री मुख का दर्शन होते भी केवल पलक की ओट में जिनका परमवियोग होता है और कहती हैं कि हे निर्दई बिधना इस मुखचन्द्र देखने के हेतु तुझको रोम रोम में आँखें बनानी थीं उसके बदले यह उलटा अँधेर किया कि बिना बात के पलक बना दी । तो जिनका प्रम और विरह इतना सीमा के बाहर है उनकी ये सब आसक्तियाँ सिद्ध हों इसमें क्या आश्चर्य है । जिनकी चरणारविन्द के रेणु के प्रसाद से लोग प्रेम पथ के अधिकारी हो सकते हैं उनके प्रेम का क्या पूछना है । भक्तिमार्ग के उद्धारकर्ता श्री आचार्य जी ने जिनकी स्पृहा की है यथा 'गोपिकानां च यदुःखं तदुःखं स्यान्मम क्वचित्' ।। और जिनको अपने मार्ग का गुरु लिखा है यथा "गोपिका प्रोक्ता गुरवः साधने मता" तो अब इससे बढ़ कर उनके आदर के हेतु वा प्रमाण के हेतु हम क्या लिखें वा क्या कहें । ये प्रेम के ग्यारह अलग अलग भेद नहीं हैं किन्तु स्वरूप हैं क्योंकि जो अलग होती तो जिसको एक सिद्ध हो उसको दूसरी न होती और यदि दो सिद्ध होंगी तो एक से जिस को दो सिद्ध हो उस की विशेषता होगी और प्रेमियों में कोई छोटा बड़ा नहीं इससे भक्ति एक ही है केवल प्रेमियों की रुचि भेद से अलग दिखाती है । ८३ ओं इत्येवं वदन्ति जनजल्पनिर्भया एकमताः कुमारव्यासशुकशाण्डिल्यगर्गविष्णुकौण्डिन्यशेषोद- वारुणिबलिहनुमद्विभीषणादयो भक्त्याचार्याः । ht भारतेन्दु समग्न ९०२