पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/९६२

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ताबूलकुंज, आड़कुंज, लावन्यकुंज, हास्यकुंज. उत्साहकुंज, उग्रताकुंज । १३ । स्मरण की स्त्री स्मृति ताके न महाकेलिकुंज यथा कोकिलालापकुंज, ग्रीवकुंज, आलिंगनकुंज, चुंबनकुंज, अधरपानकुंज, दर्शनकुंज, दर्पनकुंज,60 प्रलापकुंज, उन्मादकुंज । १४ । वंदन की स्त्री नति वाके नौ एकांतकुंज यथा दर्पकुंज, उत्सादनकुंज, उत्कर्षकुंज, दीनकुंज, अधीनकुंज, सुरतकुंज, आकर्षणकुंज, उच्चाटनकुंज, मूर्छाकुंज । १५ । दास्य की स्त्री विनया वाके नौ गोप्यकुंज यथा बशकरणकुंज, स्तंभनकुंज, प्रियस्कंधारोहणकुंज, आवेशकुंज, व्यात्तालापकुंज, पर्यकशयनकुंज, प्रियावरणताड़नकुंज, नखक्षतकुंज, दंतक्षतकुंज । १६ । सख्य की स्त्री मैत्री तासौं नौ भावकुंज यथा क्षपितरंगकुंज, विगताभरणकुंज, भूषणकुंज, कंपकुंज, रतिप्रलापकुंज, तुत्तुलगिरिकुंज, प्रियावासभवनकुंज, मदनगुह्यकुंज, आसक्तकुंजकुंज, । १७ । निवेदन की स्त्री आत्मसमर्पिणी ताके नौ परमरसकुंज यथा पीड़ावादीकुंज, सुरतश्रमनिषेधकुंज, ठुनुककुंज, वाग्विभ्रमकुंज, व्यस्तभावकुंज, कामटंककुंज, किंकिनिरवकुंज, वीरविपरीतकुंज, सुरतातकुंज । १८ । सुहृत् की स्त्री सुहृदा तासों कलिकाकौतुककुंज और सुहित की स्त्री हितकारिणी तासों सुरतकुंज तथा सहज की स्त्री सहजा तासों सहज प्रेमकुंज येई चौरासी कुंज भए । १९ । इन कुंजन में एक एक में सब कुंज अंतरभाव सों रहत है कहूँ प्रच्छन्नरहत हैं और कहूँ प्रकाशित होत हैं । २० । अब और स्फुट रहस्य वर्णन करत हैं । व्रज में सप्तावरण स्वरूप श्रीठाकुर जी को तथा श्रीस्वामिनीजी को विराजत है ।। २ ।। वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न, अनिरुद्ध, कालेश्वर, संयोगरसात्मक और वियोगरसात्मक यह सात स्वरूप मिलि के पूर्ण होत हैं सो इन में अन्य कल्पन में कहूँ एक कहूँ दोय ऐसे स्वरूप प्रकट होत हैं ।। ३ ।। जब पूर्ण प्राकट्य भयो तब छ स्वरूप मथुराजी में प्रगटे, वियोगात्मक स्वरूप बृज ही में प्रगटे ।। ४ ।। श्रीशक्ति, भृशक्ति, लीलाशक्ति, मनोरथात्मक, स्वामिन्यात्मक, वियोगात्मक, संयोगरसात्मक यह सात स्वरूप श्री स्वामिनी जी के हैं तिन में अन्य युगन मैं कोउ एक स्वरूप प्रकटत हैं । जब पूर्ण प्रागट्य भयो तब पाँच स्वरूप कीर्ति जी के यहाँ प्रगटे और जब श्री. ठाकुर जी प्रकटे तिन के साथ मायावृत संयोग-वियोग रसात्मक दोय स्वरूप यहाँ प्रकटे । सो जब कोरतिजी अपने घर सो श्री स्वामिनी जी को लाईं तब श्री ठाकुर जी माता की गोद सों किलके और हँसे वाही समैं इन दोऊ रसात्मक स्वरूपन को उन पंचावरणात्मक स्वरूप मैं स्थापन कीनो ।। ५ ।। जब कछु आवरण सों मथुरा पधारे तक वियोगरसात्मक मुख्य स्वरूप श्रीस्वामिनीजी के हृदय में बिराजे ।। ६ ।। श्रीस्वामिनीजी को मनोरथात्मक जो स्वरूप हैं ताही में अन्य के प्रभु सों रमण करिबे के मनोरथ तथा वरदान आदि सों जे स्वामिनी प्रकटत हैं ते मिलि रहत हैं और स्वामिन्यात्मक स्वरूप में प्रति कुंज प्रति मंडल प्रति जूथ मैं जो स्वामिनी जी के अंश स्वरूप रहत हैं तिनको एकता है ।। ७ ।। अथ श्रीस्वामिनी-जन्म-समय अथ ब्रह्मणो द्वितीयप्रडरार्धे श्वेत वाराह कल्पे द्वापरति विश्वावसु संवत्सरे भाद्रपदेशुक्लाष्टम्यां गुरु वासरे अरुणोदये विशाखायां सिंहलग्नोदये प्राइमुहूर्तद्वयान्विते श्री श्रीस्वामिन्या जन्म ।। ८ ।। ३ चं. १ १० मं. भारतेन्दु समग्र ९१८