पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/९७८

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हे जिसमें दो प्रश्नों के उत्तर हैं- पहिला जो कोई औदत्य से किसी देव मूर्ति को उखाड़ दे तो उसको क्या दोष है । इसका उत्तर देने के पहिले मैं पूछता हूँ कि वह देव मूर्ति स्थापित थी इसमें कौन प्रमाण या बिना बात ही कहना कि विश्वनाथ जी के सिर पर गरुड़ की मूर्ति थी । उसको शैवों ने तोड़ के फेक दिया हम फिर बैठायेंगे । जो कहो कि प्राचीन काल से न थी तो किसी को उसका उखाड़ना भी तो अयोग्य है । मैं कहता हूँ कि पहिले तो किसी की स्थापना ही में प्रमाण नहीं और जो किसी ने स्थापना किया तो वह योग्य है वा अयोग्य । जैसा किसी शिव जी से बड़े देवता के ऊपर किसी क्षुद्र देवता या किसी विष्णु गण की मूर्ति बल से बैठा दे तो वह योग्य होगी वा अयोग्य । मैं कहता हूँ.अयोग्य ही होगी। इसमें प्रमाण यही है कि किसी बड़े देवता के सिर पर या परम निकट किसी क्षुद्र देवता की मूर्ति अंगी भाव से देखने में नहीं आती । जाने दीजिये इस संस्कृत व्यवस्था का विचार मत कीजिये क्योंकि इस पर बड़े बड़े लोगों के हस्ताक्षर हैं और आगे विचार कीजिये । इस तहकीकात की हिंदी के पूर्व दो श्लोक लिखे हैं जिनमें पहिले का यह अर्थ है । हम लोग अद्वैतवादी विष्णु, शिव के ईश्वरता का विचार नहीं करते पर जो लोग शिव जी से द्वेष करते हैं उसकी हम दुरुक्ति काटते हैं । इसमें कोई विष्णुद्वेष की शंका न करै । महाराज अद्वैतवादी जो आप पक्के नहीं हैं अभी कच्चे अद्वैतवादी हैं क्योंकि आप अभी साहेब लोगों के संग नहीं खाते । हाँ और यह तो कहिये कि जब आप अद्वैतवादी हैं तब आप को दुरुक्ति और उसका काटना और विष्णु द्वेष की शंका की डर कहाँ से आई क्योंकि-का विधिः को निषेधः । स्मरण कीजिये आप जैसे हों उससे मुझे कुछ काम नहीं परंतु पंडितों की तो समान दृष्टि चाहिए । शुनिचैवश्व पाके च पण्डितास्समदर्शिनः आप तो समान दृष्टि वाले हैं आप से और दुरुक्ति छेदन से क्या काम और फेर यह तो कहिये कि आप श्री जगन्नाथ जी के भोग का प्रबंध करते हैं कि शिव विष्णु का भेदाभेद करते हैं । यहाँ शिव का द्वेषी कौन है जिसकी दुरुक्ति काटने को आप प्रवर्त भए हैं । जो कहिये कि महंत और पंडे तो आप उनको दुरुक्ति काटते हैं कि उनकी जीविका काटते हैं, यह केवल उन की मनोवृत्ति इसी बहाने प्रकट हो गई। जो हो अब मैं आगे इस पुस्तक की भाषा पर विचार करता हैं । पर इससे कोई यह न समझे कि मैं केवल द्वेषि बुद्धि से लेखनी लिए हूँ । ऐसा कदापि नहीं क्योंकि जो विषय कि मैं इस स्थान पर नहीं खंडन करता उनसे समझिये कि मेरी संमति है मुझे केवल इस पुस्तक के सब दफों में से केवल २, ३, और ९ दफे में कुछ कहना है । और शेष पर मैं पूर्ण रीति से समति करता हूँ क्योंकि पुरी के और सब अन्याय उसमें ठीक ठीक लिखे हैं । जैसा दूसरे दफे में लिखते हैं कि 'श्री जगन्नाथ जी के मंदिर में रत्न सिंहासन और प्राचीन काल से ५ मूर्ति स्थापित थीं जैसा श्री जगन्नाथ १ बलभद्र २ सुभद्रा ३ सुदर्शन ४ भैरव ५ । और उस मूर्ति को वैष्णवों ने बंगला सन् १२०८ में उखाड़ के फेंक दिया ।' तीसरे दफा में फिर लिखते हैं कि पं. बस्तीराम जी के बयान से जाना गया कि मूर्ति पहिले से थी पर किसी भाँति उसका अंग भंग हो गया तब महाराज मानसिंह ने जीर्णोद्धार किया । उसी को आचारियों ने तोड़ा । इस दफे में सांप्रत काल के श्री महाराज सवाई रामसिंह की स्तुति भी है। अब मैं इसका विचार करता हूँ, सुनिये । पहिले तो विष्णु के समान कोई देवता बैठ ही नहीं सकता । क्योंकि विष्णु के समान अन्य देव तुलना करने से बड़ा दोष होता है जैसा वशिष्ठ - श्री महाविष्णुमन्येन हीनदेवनदुर्मतिः । साधारणं सकृद्धृते मोत्यजोनांत्यजीत्यवः । और भी वासुदेवं परित्यज्य योन्यदेवमुपासते । तृषितो जान्हवीतीरे कूपंखनति दुर्मतिः । दूसरे कही भैरव और विष्णु को एक संग बिठाने की विधि नहीं है । तीसरे शैव पुराणों से ज्ञात हुआ कि भैरव विष्णु का अवतार है इससे जब साक्षात् विष्णु विराजते हैं तब भैरव का क्या काम है। चौथे जगन्नाथ माहात्म्य के देखने से जाना गया कि जगन्नाथ जी नृसिंह के स्वरूप है और नृसिंह से भैरवादिक डरते है जैसा इस वाक्य से स्पष्ट है । डाकिनी शाकिनीभूत प्रेतविघ्नपभैरवा । नहरेगज्जनश्रुत्वा पलायन्तेपरांमुखाः । पाँचवे तामस देवताओं की पूजा का निषेध है इससे भैरव सात्विकों के पूजने योग्य नहीं जैसा श्री मदभागवत में लिखते हैं । मुमुक्षवोघोर रूपान् हित्वाभूतपतीनथ । नारायण कलाश्शान्ता भवन्तियनुसूयवः । छठे पंचायतन बिना केवल दो देवता की विधि किसी शास्त्र में देखने में नहीं आती। सातवें विष्णु के आवरण में जहाँ भैरव की पूजा का विधान है वहाँ भैरव को बराबर बिठाना नहीं लिखा है। दुर्गा और भैरव की पूजा नीचे करनी लिखी है । भारतेन्दु समग्र ९३४ Aksar