पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/९८

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| बाग गई कलियाँ चूनि लाई नि नि माल बनाई । चंदा तन लावत बिरह लाय, 'हरीचंद' पिय गल पहिराई हँसि हँसि कंठ लगाई।६७ कर पाटी पटकत करत हाय, बिहाग दुख बाढ़यौ सखी नहिं पास कोऊ जागत रहियो वे सोवनवालियो ऐहै कारो चोर । व्याकुल बिरहिन सुकुमारियाँ । आधी रात निखंड गए मैं सुंदर नंद-किशोर । तलफत जल बिनु मछरी सी सेज, रहि जात पार कर सो करेज, लूटन लगिहै जोबन जब तब चलिहै कछुत जोर । 'हरिचंद' पिया की याद परै जब 'हरीचंद'रीती कार जैहै तन-मन-धन सब छोर ।६८ बातें प्यारा प्यारियां ।७४ असावरी एरी लाज निछाबर करिहों जो पिय मिलिहैं आज । काफी पीलू गहि कर सो कर गर लपटैहौं करिहौं मन को काज । क्यौं फकीर बनि आया बे, मेरे बारे जोगी । लोक-संक, एकौ नहिं मानौं सब बाधक पर डारहों गाज। नई बैस कोमल अंगन पर काहे भभूत 'हरीचंद' फिर जान न देहों जो ऐहैं बृजराज ।६९ रमाया बे. मेरे बारे जोगी। को वे मात-पिता नेरे जोगी ईमन कल्यान जिन तोहिं नाहिं मनाया बे । चतुर केवटवा लाओ नैया । साँझ भई घर दूर उतरनो नदिया गहिरी मेरो जिय हरपै कांचे जिय कहु काके कारन प्यारे अब मैं तेरी लेहँ बलैया ।। जोग कमाया बे, मेरे बारे जोगी। दैहो जोबन-धन उतराई 'हरीचंद रति करि मन भाई बड़े बड़े नैन छके मद-रंग सों पैयाँ लागू तोरी रे बलदाऊ के भैया । मुख पर लट लटकाया बे । गर लगो मेरे पीतम सुघर खिवैया ।७० 'हरीचंद' बरसाने में चल घर घर अलख जगाया बे, मेरे बारे जोगी ।७५ पूरबी गौरी प्रानेर बिना की करी रे आमी कोथाय जाई । आमी की सहिते पारी बिरह-जंतना भारी मोहन मीत हो मधुबनियाँ । आहा मरी मरी बिष खाई। मतवारो प्यारो रसवादी रसिया छैल चिकनियाँ । बिरहे व्याकुल अति जल-हीन मीन गति बटपारो लंगर लड़वारी भरन देत नहिं पनियाँ । हारि बिना आमि बचाई ।७१ घाट बाट रोकत 'हरिचंदहि'नयो बन्यो दधि-दनियाँ।७६ मोहन प्यारो हो नंद-गैयाँ । बेदरदी बे लडिबे लगी तेंड़े नाल । बे-परवाही वारी जी तू मेरा साहबा नित नई अट-पट चाल चलावत देखी सुनी जो नैयाँ । असी इत्थों बिरह-बिहाल । लकुट लिए रोकत मग जुवतिन मानत परेहु न पैयाँ । चाहनेवाले दी फिकर न तुझ । 'हरीचंद' छैला ब्रज-जीवन वाको कोउ न गोसैयाँ ७७ गल्लौ दा ज्याब न स्वाल । मोहन बांको हो गोकुलिया । 'हरीचंद' ततबीर ना सुझदी चलत न देत पंथ रोकत गहि चंचल अंचल चुलिया । आशक बैतुल-माल ।७२ नैन नचायत दधि मटुकिन की करिकै ठाला-ठुलिया । बिहाग वा कलिंगड़ा 'हरीचंद' टोना कछु जानत जासों सब बृज भुलिया।७८ मैं तो राह देखत ही खड़ी रह गई लावनी हाय बीत गई सब रतियाँ । बिना उसके जल्वा के दिखाती कोई परी या हर नहीं । पिया सांझ के कह गए भयो भोर, सिवा यार के, दूसरे का इस दुनिया में नूर नहीं । नहिं आए मदन को बाढ़यो जोर, जहाँ में देखो जिसे खूबरू वहाँ हुस्न उसका समझो । 'हरिचंद' रही पछिताय सीस धुनि फलक उसी की सभी माशूकों में यारो मानो । करिके बजर सी छतियाँ ७३ जहाँ कोई खुशगुलू मिले तुम वहाँ उसी का बोल सुनो । पिया बिनु मोहिं जारत हाय सखी जुल्फों को भी उसी का पेंच समझ कर आके फैसो । देखो कैसी खुली उजियारियाँ । नशीली आँखें वहाँ नहीं हैं जहाँ मेरा मखमूर नहीं ।। भारतेन्दु समग्र ५८