पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/९८०

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MARAT अब हम इन गाना काह के शुट जगन्नाथमाहात्य से इस व्याख्या का गिनार का है। श्री जगन्नाथ मादातदनखित हैं एक ना होवनीनाति महोदव पत सत संहिता का दसरा स्कंदपराण के रत्काल संड काबनभाना में ना कहीं रल सिंहासन पर भैरव का नाम नहीं है। इसके अतिरिक्त मनोरथ पंथ धत

महामरुतंत्र X कामनादिक हो तो अपने घर में शाह जिसकी पूजा करें । श्री जगन्नाथ जी के रत्न सिंहासन पर तो भैरव बैठाने का मनोर्थ चित से दूर करें क्योंकि उपास्य एक भगवान कृष्ण चंद्र ही है इसरा सर्वथा नहीं है जो इसने पर भी मेरी बात न माने तो इन वाक्यों के समूह को कान खोल के सुनें । सार संग्रह में प्रजापति स्मृति । नारायण परित्यज्य हदिस्थ प्रभुमीश्वरं । बोन्यमयतेदेषः परबुध्यासपाधभाक ।। पशिष्ट भी । नारायणः परं ब्रहम ब्राहमणानाहिदैवत । भारत में भी । ब्रह्मणशितिकण्ठच याश्चान्याः देवतास्मृताः । प्रतिघुदान सेवन्ने यस्मात्परिमितम्फल । पापुराण में भी नारायणः परं ब्रहम विप्राणां दैवत हरिः । एषपूज्योकिराना पुरुषर्षभनेतरः । नान्यदेवनिरीक्षेत नान्यदेवऽनपूजयेत् । न चान्यप्रणमेदिनो नान्यदायतनम्पिशेत् । पाराह पुराण में -- यत्सत्तासहरिदेशी हारेस्तत्परमपदं । सत्वं रजस्तमञ्चेति तृतथंचेतदुच्यते । और कहाँ तक लिसंगपुराण में भी प्रसिद्ध वाक्य देख पीजिये । उसका प्रसाद कोन होगा क्योंकि वह तो रुद्रांश है और रण्यगर्पोरसजा तमसा शंकर स्थाय : सत्येनसर्वगोविष्णुस्सात्मा सदसन्मयः । सात्विकस्सेव्यतेविष्णुस्तामसैरेव शंकरः ।। ब्रहमा संकीर्णेश्च सरस्वती । इस वाक्य को दोनों कानों से मुनिए । नौदोरुद्रस्तथाषायुर्दुगांगणपभैरयाः । यमस्कन्दोनमृतश्न तामसा देवता स्मृताः । फिर पद्म पुराण में । यक्षराक्षसभूताद्या कष्माण्डागणभैरवाः । नाननीयासबाषि । विष्णु लोकमभीष्मभिः । र

। रजस्तमोभिभूतानामच्न प्रतिबिध्यते । रवाना

रौरवन्नरकयान्तियाभूत- गणानात् । और भैरव तो कापालिकों के देवता है उसका पूजन तो वैष्णव स्मातं सब निपिट है जैसा संप्राय देवता प्रसंग में । कुलाचार्य स्नुषामानां सिद्धानाम्मुण्ड उमाशिनी । तथा कापालिकानाञ्च देवता भैरव स्वयं । और कापालिकों के देवता भैरव है यह प्राचीन काव्यों में मी प्रसिद्ध है जैसा प्रभोध नोदय नारक में तीसरे अंक में कापालिक वाक्य । मस्तिष्काक्तवसाभिधारित महामांसाइतिर्नुहवता । बन्ही ब्रहम कपाल कारिगत सरापानेननः पारणा । सधः कृत कठोर कण्ठ विगलत्कोलागधारोज्जले । रोनः पुरुषोपहार अलिभिषे यो महाभैरवः ।। १ ।। इस हेतु सतोमय श्रीकृष्ण की उपासना करो और यह आग्रह छोड़ने । तरहये जो भैरव रत्नसिंहासन पर बैठेगा तो फिर श्रीकृष्यातिरिक्त और देवता का विशेष करके रुद्र का प्रसाद निर्माध्य ग्रहण का दिपेध है। जैसा नारायण भट्ट कृत धर्म प्रवृत्ति में । परिवम्बिष्णुनैवेद्य मुरसिद्धर्थिभिस्मृतं । अन्यदेवस्य नैवेथम्भुक्त्वाचान्द्रायणं नरेत् । तथा स्कंदपुराण के मार्गशोयं माहात्म्य भगवद् वाक्य । अन्योपान्देवतानाघ्न न गृहवीयाच्यभक्षितं । अभक्तनांचपक्पन्न भुक्त्या बेनरके ब्रजेत् । फिर स्मृत्यर्थ सार में भीर धर्मसिंधु के तीसरे परिच्छेन्द्र में । शेष सौर निर्माल्य भक्षमचान्द्रायणी । प्रायश्चिलेन्दु शेपर में भो । सदनिमल्यिस्पर्श सौलस्नान क्षेत्र सौर निर्माल्य भक्षणे चान्द्र । इत्यादि । स्मृत्यर्थ सार में भी राधा श्राद हेमादि में स्कापुराण का वाक्य : स्युष्टवारुद्रस्य निर्माल्य वाससानागुतश्शुचिः । प्रायश्चित्त मयूष में नी कालिका पुराण का यहा वाश्य या है । स्पृष्ट्यारुद्रस्यनिर्मात्य सवासाचाप्ततश्शुचिः । शिवपुराण में भी शिन जा का वाश्य । अनम्मिमनवय पत्रपुष्पम्फलज्जलं । इत्यादि वाक्यों से स्पष्ट है कि जो भैरव रत्न सिंहासन पर पडेगा मा फिर माग प्रमाः काई न लगा और पिठर भैरव की तृप्ति इन अन्नों से न होनी है उसकी मदिरा और मांस से होती है बिना घड दिए भैरव कभी न तृप्त । और जो मांस मदिरा दोगे तो भगवान विष्णु वहाँ न रहेंगे । देखो पैरव का मांस प्रिय होना कुल धर्म शार र पतमहामेरू वाक्य से स्पष्ट है । कि बेदैः कि पुराणश्च किम्मन्वेश्चैवताप्यतः । चतुःषष्ट्युपचारैः किं कितथास्तवनादिभिः । रुद्रोभूतगणेश्वरः । न प्रीप्यते महादेवो भैरवः कुल कैरवः । शोणीMPIAH ना । विनाकुलोक्तविधिना तथास्थिनिचयेन च। छिधिभिंघीसिणाश्येन चंगानांचालनेनच । मुण्डानांकनिनैव सण्डानानर्तनेनलि ! श्यामानादर्शनषेध विलोमभगचुम्बने । मैथुनेमानिनीनां च कन्यानां कुत्तमर्थन । मुद्राणां न मधुकुडेनवेतथा । वाल्योसरितवाचैव भासवेनाधरस्मच । भक्षणेचैव मत्स्थानाभोजनेनडि । गायकानान्तुगानेन नर्तकीनर्तनेन च । घोषेण प्रीतस्वाच्चण्डियापतिः । विनापञ्चमकारेण कुलस्यविधिनाधिना । सतः पूजितश्चापि नस्यात्त- मदंगवेणुढक्काना वायेननुमुझेन च । जय भैरव स्यफलप्रदः । तस्मात्सर्व प्रयत्नेन मॉलमुदादिमिश्शिर्ष । नित्य मां पूजयेतेवि भैरवं भय नाशनं । इति । है "HAPORN भारतेन्दु समग्र ९३६ HAR