पृष्ठ:भारतेंदु समग्र.pdf/९९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

सिवा यार के०।१ बिरहा से सब छिन हाय दहकती छाती जहाँ पै देखो नाज गजब का उसके सब नखरे जानो । कोई उनसे जा यह मेरी बिथा सुनाती देख करिश्मा, उसी सीगे में उसको गरदानो । 'हरिचंद' उपाय न चले रही पछताई। जहाँ हो भोलापन तुम उस भोले को वहाँ पै पहिचानो । उस निरमोही की प्रीत काम नहिं आई ।४।८० जुल्म जो देखो, तो इस जालिम की बेरहमी मानो । तुम सुनो सहेली सँग की सखी सयानी । बिना उसके इस शीशए-दिल को करता कोई चूर नहीं। पिय प्यारे की मैं कह लौ कहौं कहानी । सिवा यार के०।२ एक दिन मैं अँधेरी रात रही घर सोई। बिना मिले उस मह के झलक माशूकपना आता ही नहीं। पलंगों पै इकली और पास नहिं कोई । बगैर उसके, निवानी शक्ल कोई पाता ही नहीं । हारि आय अचानक सोए पास भय खोई। मजाल क्या है दिल छीनै उस बिना दिया जाता ही नहीं 1 मुख नूम कस्यो मेरे भुज सों भुज सोई । उसको छोड़ कर, दूसरा आँखों को भाता ही नहीं । मैं चौकि उठी लियो गल लगाय सुखदानी । जितने खूबरू जहाँ में हैं वो कोई उससे दूर नहीं । पिय यारे की मैं कह लौं कहाँ कहानी । सिवा यार के० ३ एक साँझ अकेली मैं थी गलियों आती । लिए अंचल वही मेरा माशूक झलक इन बुतों में भी दिखलाता है। नीचे घर-हित दीआ-बाती । वही इश्क में, आशिकों को हर तरह फंसाता है। आए. इतने में सखि मेरे बाल-संघाती । कहीं मेहरवाँ बनता है और कहीं जुल्म फैलाता है। उन दीप बुझाय लगार लई मोहिं छाती। गरज कि हर जा. मुझे वो यार ही नजर आता है । मैं औचक रह गई कियो जोई मनमानी । 'हरीचंद जो और देखते वो आशिक भरपूर नहीं । पिय प्यारे की मैं कह लौं कहौं कहानी ।२ सिवा यार के०।४।७९ एक दिन मेरे घर जोगी बन कर आये । सिर जटा बढ़ाये करि निठुर श्याम सों नेह सखी पछताई। अंग भभूत लगाये । चड़ सिढ़ी नाम ले हर को अलख जगाए । उस निरमोही की प्रीति काम नहिं आई। उन पहिले आकर हमसे आँख लगाई। मैं भिच्छा ले गई तब मुख चूमि लुभाए । बोले भिच्छा थी मुझे यही मेरी रानी । करि हाव-भाव बहु भांति प्रीति दिखलाई । ले हमारा नाम बंसी पिय प्यारे की मैं कह लौं कहौं कहानी ।३ मधुर बजाई। हमें छोड़ के दूर बसे जदुराई । जब मिले जहाँ हँसि लीनो चित्त चुराई । ने मोहा रहे वहीं बिलमाई। मुख चूमि भए बलिहार कंठ रहे लाई । उस निरमोही की प्रीत काम नहिं आई।१ विनती कर बोले सदा प्रीति दिखलाई। हमने जिसके हित लोक-लाज सब छोड़ी। सपने में भी नहिं देखी कभी रुखाई। सब छोड़ रहे एक प्रीत उसी से जोड़ी । रहे सदा हाथ पर लिये मुझे दिल-जानी । रही लोक-बेद घर-बाहर से मुख मोड़ी। पिय प्यारे की मैं कहँ लौं कहाँ कहानी 18 पर उन नहिं मानी सो तिनका सी तोड़ी । एक दिन कुंजों में साथ दूसरी नारी । हाथ लगी मेरे जग बीच हँसाई। अपने सुख बैठे थे मिलकर गिरिधारी । उस निरमोही की प्रीत काम नहिं आई ।२ मैं गई तो सकुचे झट यह बुद्धि बिचारी। हम उन बिन सखियाँ बन बन ढूँढ़त डोलें। बोले यह आई तुमहिं मिलावन प्यारी । पिय प्यारे प्यारे मुख से सब छिन बोलें । तुम घर भेजन को बिनती करि यहि आनी । जिन कुंजन में हरि हँसि हँसि करी कलोलें । पिय प्यारे की मैं कह लौं कहौं कहानी 1५ वहाँ ब्याकुल हो हम मूंद मूंद दृग खोलें । मेरे मुख में पिय ने सब दिन सुख माना । दै दगा जुदा भए मोहन बिपति बढ़ाई । मुझे अपना जीवन प्रान सदा कर जाना । उस निरमोही की प्रीत काम नहिं आई ३ मेरे हित सब सखियों का सहते ताना । क्या करें कोई तदबीर न और दिखाती । मुरझाए जो मुख मेरा कुछ मुरझाना । दिन रोते कटता रात जागते जाती। गुन लाख एक मुख कैसे बोनौं बानी अब कुवरी इक 7 प्रम तरंग ५९