पृष्ठ:भारतेन्दु बाबू हरिश्चंद्र का जीवन चरित्र.djvu/११

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'कविवचन सुधा' के सिद्धान्त वाक्य या 'मोटो' के लिए उन्होंने इस छन्द की रचना की थी खल गगन सो सज्जन दुखी मति होहि, हरिपद मति रहै। उपधम छूट, स्वत्व निज भारत गहै, कर दुख बहै ॥ बुध तहिं मत्सर, नारि नर ____सम होहि, जग प्रानंद लहै । तजि ग्राम कविता सुकवि जन की अमृतबानी सब कहैं ॥ बाबू राधाकृष्णदास जी ने ठीक ही लिखा है कि-"यद्यपि इन बातो का कहना कुछ कठिन प्रतीत नही होता है परतु उस अधपरम्परा के समय मे इनका प्रकाश्य रूप मे इस प्रकार कहना सहज न था। नव्य शिक्षित समाज को "हरिपद मति रहै" कहना जैसा अरुचिकर था, उससे बढ कर लकीर के फकीरो को "उपधम छुटै" कहना क्रोधोन्मत्त करना था। जैसा ही अग्रेज हाकिमो को "स्वत्व निज भारत गहै, कर (टैक्स) दुख बहै" कहना कणकटु था, उससे अधिक "नारि नर सम होहि" कहना हिन्दुस्तानी भद्र समाज को चिढाना था। परन्तु वीर हरिश्चन्द्र ने जो जी मे ठाना उसे कह ही डाला और जो कहा उसे आजन्म निभाया भी।" यह खरे साहित्यिक की पहचान है। मेरा अनुभव है कि कृती-साहित्यिक आम तौर से मन मे किसी बिंब की झलक पाता है और उसी बिंब से उसकी सवेदनाएँ और विचार जागते है। ये सवेदनाएँ जैसे-जैसे तीन और विचार जैसे-जैसे गहरे होते है, वैसे-वैसे मनोबिंब भी अधिकाधिक प्रखर होकर दृश्यमान होने लगते है। यह बिंब वस्तुत उन सभी सवेदनाओ का सवहन करते है जो रचनाकार के देश काल और