पृष्ठ:भारतेन्दु बाबू हरिश्चंद्र का जीवन चरित्र.djvu/१११

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(६४) भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र का जीवन चरित्र मृत्यु धीरे धीरे, सन् १८८४ समाप्त हुआ। सन् १८५५ प्राया। दूसरी जनवरी को एकाएक भयानक ज्वर पाया, ज्वर पाठ पहर भोगकर उतरा कि पसली में दद उठा, इस दर्द मे डाक्तर लोग जीवन का सशय करते थे, परन्तु राम राम करते यह दर्द दूर हुमा, फिर प्राशा हुई। तीसरे दिन खाँसी बडे जोर से प्रारम्भ हुई, बलगम का बडा वेग रहा, कफ मेरुधिर दिखाई पडा, बडा कष्ट हुश्रा, परन्तु इससे भी छुटकारा मिला। ता०६ जनवरी को सबेरे शरीर बहुत स्वस्थ रहा। जनाने से मजदूरिन खबर पूछने आई, आपने हँसकर कहा "हमारे जीवन नाटक का प्रोग्राम नित्य नया नया छप रहा है, पहिले दिन ज्वर की, दूसरे दिन दर्द की, तीसरे दिन खाँसी की सीन हो चुकी, देखै लास्ट नाइट कब होती है"। उसी दिन दोपहर को एक दस्त पाया, काला मल गिरा, उसी समय से कुछ श्वास बढा। बस उसी समय से उन्हो ने ससार की ओर से मन को फेरा, घर का कोई सामने आता तो मुंह फेर लेते। दो बजे दिन को अपने भ्रातुष्पुत्र कृष्णचन्द्र को बुलाया, कहा अच्छे कपडे पहिन कर पाओ, कपडे पहिनकर पाने पर कहा "नहीं इससे भी अच्छे कपडे पहिन मानो" तुरन्त आज्ञा पालन हुई, पाप पाराम कुर्सी पर लेटे और बच्चे को गोद मे बिठाकर अगूर खिलाए, फिर दोनो हाथ उसके सिर पर रख कर कुछ देर तक ध्याना- वस्थित रहे और तब उसे विदाकर कहा "जात्रो खेलो"। इसके पीछे सासारिक माया से कुछ वास्ता न रक्खा । श्वास बढ़ता ही गया, बेचैनी से नींद पाने की इच्छा वैद्य डाक्तरो से प्रगट करते रहे। धीरे धीरे रात को नौ बज गए-समय प्रान पहुंचा-एकाएकी पुकार उठे "श्री कृष्ण | राधाकृष्ण ! हे राम! आते हैं, मुख दिखलानो"। कण्ठ कुछ रुकने लगा, कुछ दोहा सा कह', परन्तु स्पष्ट न समझाई दिया, केवल इतना समझ मे आया "श्री कृष्ण सहित स्वामिनी" -बस गरदन झुक गई, पौने दस बजे इस भारत का मुखोज्वलकारी भारतेन्दु अस्त हो गया, चारो ओर अन्धकार छा गया। बस, लेखनी अब उस दुखमय कथा को लिख नहीं सकती।