पृष्ठ:भारतेन्दु बाबू हरिश्चंद्र का जीवन चरित्र.djvu/११३

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(६६) भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र का जीवन चरित्न तीथ स्वरूप ही था। काशी जी मे जाकर और तीथ पीछे स्मरण होते है, त पहिले मन मे स्थान कर लेता था। और तीर्थो पर पाधा पुरोहित घाटियो को प्रसन्न करने, अपनी नामवरी कमाने वा दान दक्षिणा देने को यात्री लोग जाते है, पर तेरे पास सब भिक्षा ही के लिये पाते थे, और किसकी भिक्षा? प्रेम की भिक्षा दशन की भिक्षा, सत्परामश की भिक्षा | तेरे दर्वाजे से कभी कोई विमुख नहीं गया, तू इस ससार मे इस लिये नहीं पाया था कि अपना कुछ बना जावे, किन्तु इस लिये पाया था कि बना बनाया भी दूसरो को सौंप दे और उनका घर भरे। तेरे चरित्रो से स्पष्ट दिखाई देता था कि तू हर घडी इस ससार को छोडने ही का ध्यान रखता था। और इसीलिये किसी ससारी लोगो की दृष्टि में तेरी अपनी वस्तु की तूने. कभी रत्तीमान भी पर्वा न की। यश कमाने तू पाया था, वह तुझसा दूसरा कौन कमावैगा। शेष सब पदार्थों का आना जाना तूने तुल्य और एक सा समझ रक्खा था। ___ "प्यारे हरिश्चन्द्र | आप के यह ससार त्यागने पर लोग शोक प्रकाश कर रहे है। परन्तु हम मे यह सामर्थ्य नहीं है। प्राप के हमे छोड कर चले जाने से जो कुछ हम मे बीत रही है, हम जानते नहीं कि तुमे किस नाम से पुकारे, हमे जो कुछ शोक है वह ऐसा पर्दो के पदों में छिपा हुआ है कि उस का प्रकाश करना हमारे लिये असम्भव है । यह महाशय भाषा के उत्तम कवि थे इस प्रकार के वाक्य लिख कर जो लोग आप के बिछोडे पर शोक प्रकट करते हैं, वह हमारे कलेजे के टुकडे उडाते हैं, वह हमारे प्यारे हरिश्चन्द्र की हतक करते हैं, हम से यह सहन नहीं हो सकता। हम कहते है कि जो लोग प्यारे भारतेन्दु के विषय मे इतना ही जानते हैं वह चुप रहै ऐसे फीके वाक्य कह कर हरिश्चन्द्र और भारतेन्दु के चकोरो को दुख न दें।" इन के स्मारक-चिन्ह स्थापन को चर्चा चारो ओर होने लगी, परन्तु जैसा हतभाग्य यह देश है वैसा कोई देश नहीं, चार दिन का हौसला यहाँ होता है, फिर तो कोई ध्यान भी नहीं रहता। फिर भी यह हरिश्चन्द्र ही थे कि जिन के स्मारक की कुछ चर्चा तो हुई नाम मात्र के लिये कानपूर और अलीगढ भाषासम्बधिनी सभा मे "हरिश्चन्द्र पुस्तकालय" स्थापित हुए परन्तु वास्तविक स्मारक उदयपुर मे "हरिश्चन्द्रार्य विद्यालय" हुआ जो आज तक वर्तमान है और जिस में कुछ Rो भी सञ्चित है कि जिस से उसके चले जाने की आशा है। काशी में इन का