पृष्ठ:भारतेन्दु बाबू हरिश्चंद्र का जीवन चरित्र.djvu/११४

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भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र का जीवन चरित्र (६७) स्थापित जो स्कूल है वह उस समय"चौक स्कूल" कहलाता था, परन्तु इन की मृत्यु पर उसके पारितोषिक वितरण के उत्सव मे राजा शिवप्रसाद ने प्रस्ताव किया कि 'इस स्कूल का नाम अब से इस के सस्थापक बाबू हरिश्चन्द्र के स्मारक स्वरूप "हरिश्चन्द्र स्कूल" होना चाहिए।' सभापति मिस्टर ऐडम्स (कलेक्टर) ने इस का अनुमोदन किया और तब से यह स्कूल "हरिश्चन्द्र एडेड-स्कूल" कहलाता है। हिन्दी समाचार पत्रो की ओर से "मित्रविलास" के प्रस्ताव पर इन के नाम से "हरिश्चन्द्र सम्बत्" चला। उदयपुर मे कई वर्ष तक इनके श्राद्ध समय मे "हरि- श्चन्द्र सभा" होती रही, जिसमे इनके विषय मे भाषा तथा सस्कृत कविता पढी जाती थीं। दमोह जिला गया से कुछ दिनो तक "हरिश्चन्द्र कौमुदी" मासिक पत्रिका निकलती थी। "खडगविलास प्रेस" बाकीपुर से "हरिश्चन्द्र कला" प्रकाशित हुई, जिसमे पहिले तो उनके प्राय सब ग्रन्थ शृङखला के साथ छपे, फिर उन के संग्रहीत तथा मनोनीत ग्रन्थ छपते रहे। हिन्दी समाचार पत्रो मे प्रकाशित शोक प्रकाश तथा और शोक कविताओ के सग्रह का "हरिश्चन्द्र शोकावली" नामक एक अच्छा प्रन्थ छपा। लखनऊ से एक सौ वष की जन्त्री "भारतेन्दु शताब्दी" नामक छपी और सन १८५८ ई० मे कविवर श्रीधर पाठक जी ने श्रीहरिश्चन्द्रा- ष्टक" प्रकाशित किया, जिसके अन्तिम छप्पय के साथ हम भी इस प्रबन्ध को समाप्त करते हैं। "जबलौ भारतभूमि मध्य आरजकुल बासा । जबलो प्रारजवम माहिं आरज । बिश्वासा॥ जबलौ गुन-गरी नागरी आरजबानी । जवलौ प्रारजबानी के प्रारज अभिमानी॥ तबलो यह तुम्हरो नाम यिर, चिरजीवी रहिह अटल । नित चन्द सूर सम सुमिरिहै हरिच दहु सज्जन मकल ॥" इति ।