पृष्ठ:भारतेन्दु बाबू हरिश्चंद्र का जीवन चरित्र.djvu/१३

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हिन्दी भाषी क्षेत्र को बाँग्ला, मराठी, गुजराती, पजाबी आदि अन्य भारतीय भाषाओ के समानधर्मा विचारको के साथ मिला कर "भारत स्वत्व निज कर गह" की दीघकालीन योजना के लिए भारतेन्दु ने राष्टोत्थान का एक व्यापक स्वप्न साकार करने का प्रयत्न किया था। हिन्दी भाषी जन 'जनम के रिनिया' भारतेन्दु का यह ऋण भार जितना उतारे उतना ही कम है। यह फकीर की कमली की तरह है--जितनी वह भीगेगी उतनी ही भारी होती जायेगी और उतना ही हमारा साहित्य और समाज सुन्दर से सुन्दरतर होता चला जायेगा। यदि सही सोद्देश्यता हो तो युगधर्मी साहित्य ही शाश्वतधर्मी भी हो जाता है। वस्तुत अतरग मे दोनो 'कहियत भिन्न न भिन्न' ही है। भारतेन्दु के सपादशताब्दी महोत्सव के इस वष मे उत्तर प्रदेश हिन्दी समिति ने बाबू राधाकृष्णदास लिखित प्रस्तुत जीवनी के अतिरिक्त बाबू शिवनन्दन सहाय लिखित 'हरिश्चन्द्र' पुस्तक को भी पुनप्रकाशित किया है। इनसे अधिक प्रामाणिक जीवनियाँ कदाचित् अाज भी नहीं लिखी जा सकती, क्योकि भारतेन्दु से सबधित काफी सामग्री दुर्भाग्यवश लुप्त हो चुकी है। शोधकर्तामो के लिए इन अप्राप्य पुस्तको के पुनप्रकाशन की बडी आवश्यकता थी। इसके अतिरिक्त समिति भारतेन्दु के सभी असकलित निबधो का एक संग्रह भी शीघ्र प्रकाशित करेगी। आधुनिक हिंदी साहित्य के जनक के प्रति हमारी यह विनम्र श्रद्धाजलि अर्पित है। हिन्दी भवन, अमृतलाल नागर लखनऊ, अध्यक्ष, हिदी समिति १६११६७६