आइये, उनका ऋण-भार उतारें!
अनेक आचार्यों का यह मत है कि साहित्य को समय की जलक्ष्मणलीक से नहीं बाधा जा सकता। साहित्य मानवीय तत्वो पर आधारित है और वे शाश्वत होते हैं। उनके मतानुसार वक्त की पुकार से उपजने वाला साहित्य वक्त के साथ ही समाप्त भी हो जाता है। प्राचायगण तक देते है कि राष्ट्रीय आन्दोलन से मीधे प्रभावित होने वाला सारा साहित्य आज बेभाव हो चुका है जबकि उस आन्दोलन से अपरोक्ष रूप से प्रभावित और प्रेरित छायावादी काव्य साहित्य आज भी ऐतिहासिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है।
प्राचार्यों के इस मत को ध्यान में रखते हुए भी मै इस बात को नजरअन्दाज नही कर पाता कि हर देश-काल अपने राजनीतिक, आर्थिक, नैतिक और सामाजिक प्रभावो से भी कही पर गहरी अन्तरगता के साथ जुड़ा रहता है और वह निश्चित रूप से प्राचार्यों द्वारा बखाने गये 'शाश्वत' और 'मानवीय तत्वो' से भी परोक्ष किंवा अपरोक्ष रूप से बँधा होता है। मै यह तो अनुभव करता हूँ कि साहित्य मे स्थायी मूल्यमान काल की वासनाओ से अधिकतर अप्रभावित रहते है लेकिन काल की इच्छाओ से वे कदापि अविच्छिन्न नही हो सकते । अब भी कभी-कभी ऐसे विचार पढनेसुनने में आते हैं कि कला को उपयोगिता की दृष्टि से देखना गलत है। कला केवल विशुद्ध सौन्दय की वस्तु है। लेकिन मुझे लगता है कि कला सदा विरोधाभासो से उमगती है । कभी उसमे समय के द्वद्व की छाया झलकती है, जैसे छायावादी काव्यधारा मे, और कभी ठेठ द्वद्व ही कला का रूप धारण कर लेता है, जैसे प्रेमचद कृत 'गोदान' या 'रंगभूमि' मे। व्यक्ति के निजी और