पृष्ठ:भारतेन्दु बाबू हरिश्चंद्र का जीवन चरित्र.djvu/५७

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(३८) भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र का जीवन चरित्र एक सोने की घडी, चॉदी का चश्मे का खाना और बॉह पर बाँधने का एक चाँदी का यन्त्र अब तक उस समय का जल मे से निकला हुमा रक्खा है । कविवर गोपालचन्द्र की कवित्वशक्ति उस समय भी स्थगित न हुई और उन्होने उसी अवस्था मे एक पद बनाया अन्तिम पद उसका यह है-- "गिरिधर दास उबारि दिखायो ___भवसागर को नमूना" चार दिन बुढवामङ्गल के अतिरिक्त, होली और अपने तथा पुत्रो के जन्मो- त्सव के दिन बडा जलसा और बिरादरी की जेवनार कराते थे, कि जिसकी शोभा देखनेवाले अब तक भी वतमान है, और कहते है वैसी शोभा अब अच्छे २ विवाह की महफिलो में भी नहीं दिखाई देती। एक बेर ये हाथी से भी गिरे थे और उसी दिन उस हाथी को काशिराज की भेंट कर दिया। गयायात्रा बचपन से श्रीठाकुर जी की सेवा और दर्शन का ऐसा अनुराग था कि उन्हें छोड कर कभी कहीं यात्रा का विचार नहीं करते । केवल पाँच वर्ष की अवस्था मे मुण्डन कराने के लिये पिता के साथ मथुरा जी गए थे, तथा श्रीदाऊ जी के मन्दिर मे मुण्डन हुआ था और वहाँ से लौट कर श्रीवैद्यनाथ जी गए थे, वहाँ चोटी उतरी थी। स्वतन्त्र होने पर कभी कभी चरणाद्रि श्री महाप्रभु जी के दशन को जाते, परन्तु पहिले दिन जाते, दूसरे दिन लौट आते। केवल बाबू हरिश्चन्द्र के जन्मोपरान्त सवत १९०७ मे पितृऋण चुकाने के लिये गया गए थे। गया जाने के लिये बडी तयारियाँ हुईं। महीनो पहिले से सब पुराणो, धर्मशास्त्रो से छाँट कर एक सग्रह बनवाया गया। रेल थी नहीं, डाँक का प्रबन्ध किया गया। सैकडो आदमियों का साथ था। पन्द्रह दिन की गया का विचार करके गए, परन्तु वहाँ जाने पर प्रभुवियोग ने विकल किया। दिन रात रोवै, भोजन न करे, सेवा का स्मरण प्रहनिशि रहै। निदान किसी किसी तरह तीन दिन की गया करके भागे