पृष्ठ:भारतेन्दु बाबू हरिश्चंद्र का जीवन चरित्र.djvu/६०

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भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र का जीवन चरित्र (४१) कविता इनकी सरल और सरस भी अत्यन्त ही होती थी। हम उदाहरण के लिये कुछ कविताएँ यहाँ उद्धृत करते है- सवैया-सब केसब केसब केसव के हित के गज सोहते सोभा अपार हैं। जब सैलन सैलन सैलन ही फिरै सैलन सलाहिं सीस प्रहार हैं । गिरिधारन धारन सो पद के जल धारन ल बसुधारन फार हैं अरि वारन बारन बारन पै सुर बारन बारन बारन वार हैं ॥१॥ मुकरी-अति सरसत परसत उरज उर लगि करत बिहार । चिन्ह सहित तन को करत क्यो सखि हरि नहिं हार ॥१॥ सख्यालङ्कार-गुरुन को शिष्यन पात्र भूमि देवन को मान देह ज्ञान देह दान देहु धन सो। सुत को सन्यासिन को वर जिजमानन को सिच्छा देहु भिच्छा देहु दिच्छा देहु मन सो॥ सत्वन को मित्रन को पिनन को जग बीच तीर देहु छीर देहु नीर देहु पन सो। गिरिधर दास दास स्वामी को अधी को पासु रुख देहु सुख देहु दुख देहु तन सो॥ यथासख्य--असतसङ्ग, सतसङ्ग, गुन, गङ्ग, जङ्ग कहँ देखि । भजहु, सहजु, सीखहु सदा, मज्जहु लरहु विसेखि ॥ अविकृतशब्द श्लेष मूल वक्रोक्ति-मानि कही रमनी सुलै हौं परसत तुव पाय । मानिक हार मनी सु ले देहु पतुरियै जाय ॥१॥मानत जोगहि सुमति बर पुनि पुनि होति न देह । जोगी मानहिं जोग को नहि हम करत सनेह ॥२॥ स्वभावोक्ति-गौनो करि गौनो चहत पिय विदेस बस काजु । सासु पासु जोहत खरी ऑखि अाँसु उर लाजु ॥१॥ ____समस्या पूर्ति--जीवन ये सगरे जग को हमतें सब पाप नौ ताप की हानी । देवन को अरु पितॄन को नरको जडको हमहीं सुखदानी ॥ जो हम ऐसो कियो तेहि नीच महा सठको मति ले अघसानी। हाय विधाता महा कपटी इहि कारन कूप मैं डोलत पानी ॥१॥ बातन क्यो समुझावति हौ मोहि मैं तुमरो गुन जानति राधे । प्रीति नई गिरिधारन सो भई कुज मैं रीति के कारन साधे । घूघट नैन दुरावन चाहति दौरति सो दुरि भोट है प्राधे। नेह न गोयो रहै सखि लाज सो कैसे रहै जल जाल के बाँधे ॥२॥