पृष्ठ:भारतेन्दु बाबू हरिश्चंद्र का जीवन चरित्र.djvu/६२

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भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र का जीवन चरित्र (४३) देवी सकल छोडि कठिन कुल रीति । थाप्यो गृह मे प्रेम जिन प्रगट कृष्ण पद प्रीति॥" मरने के समय भी घर का कोई सोच न था केवल श्वास भर कर ठाकुर जी के सामने यही कहा था कि “दादा ! तुम्हें बडा कष्ट होगा।" रोग और मृत्यु बचपन से लोगो ने उन्हें भङ्ग पीने का दुव्यसन लगा दिया था। वह अति को पहुँच गया था ऐसी गाढी भाँग पीते थे कि जिसमे सीक खडी हो जाय । और अन्त मे इसी के कारण उन्हें जलोदर रोग हो गया। बहुत कुछ चिकित्सा हुई, परन्तु कोई फल न हुआ। कोठी की ताली और प्रबन्ध राय नृसिंहदास को सौंप गए थे और उन्होने बाबू गोकुलच द्र की नाबालगी तक कोठी को संभाला था। स० १९१७ की बैसाख सु० ७ को प्रत समय मा उपस्थित हुआ। पूज्य भारतेन्दु जी और उनके छोटे भाई बाबू गोकुलचन्द्र जी को सीतला जी का प्रकोप हुश्रा था । दोनो पुत्रो को बुलाकर देखकर बिदा किया। इन लोगो के हटते ही प्राण पखेरू ने पयान किया। चारो ओर अन्धकार छा गया, हाहाकार मच गया। पूज्य भारतेन्दु जी कहते थे कि "वह मूर्ति अब तक मेरी आँखो के सामने विराजमान है। तिलक लगाए बडे तकिए के सहारे बैठे थे। दिव्य कान्ति से मुखमण्डल दीप्त था, मुख प्रसन्न था, देखने से कोई रोग नहीं प्रतीत होता था। हम लोगो को देखकर कहा कि सीतला ने बाग मोड दी। अच्छा अब ले जाव ।" इनकी अन्त्येष्टि क्रिया एक सम्बन्धी (नन्हूसाव) ने की थी।