पृष्ठ:भारतेन्दु बाबू हरिश्चंद्र का जीवन चरित्र.djvu/६३

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(४४) भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र का जीवन चरित्र भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का जन्म मि० भाद्रपद शुक्ल ७ (ऋषि सप्तमी) स० १९०७ ता ६ दिसम्बर सन १८५० को हुआ, जिस समय इनके पूज्य पिता का बियोग हुआ उस समय इनकी अवस्था केवल ६ वष की थी, परन्तु “होनहार बिरवान के होत चीकने पात" इस लोकोक्ति के अनुसार बालक हरिश्चन्द्र ने पॉच छ वर्ष की अवस्था ही में अपनी चमत्कारिणी बुद्धि से अपने कविचूडामणि पिता को चमत्कृत कर दिया था। पिता (गोपालचन्द्र) बलिराम-कथामृत की रचना कर रहे थे, बालक (हरिश्चन्द्र) खेलते खेलते पास आ बैठे, बोले हम भी कविता बनावैगे। पिता ने पाश्चयपूर्वक कहा तुम्हें उचित तो यही है । उस समय बाणासुर-बध का प्रसग लिखा जा रहा था। बाल-कबि ने तुरन्त यह दोहा बनाया -- ले ब्याँडा ठाढे भए श्री अनिरुद्ध सुजान । वानासुर की सैन को, हनन लगे भगवान ।। पिता ने प्रेमगद्गद होकर प्यारे पुत्र को कण्ठ लगा लिया और अपने होनहार पुत्र की कविता को अपने प्रथ मे सादर स्थान दिया और आशीर्वाद दिया "तू हमारे नाम को बढावैगा"। हाय ! कहाँ है उनकी आत्मा | वह पाकर देखे कि उनके पुत्र ने उनका ही नहीं वरन उनके देश का भी मुख उज्ज्वल किया है। एक दिन अपने पिता की सभा मे कवियो को अपने पिता के 'कच्छपकथामृत' के मगलाचरण के इस प्रश पर -- "करन चहत जस चारु कछु कछुवा भगवान को" व्याख्या करते देख बालक हरिश्चन्द्र भी आ बैठे। किसी ने "कछुकछुवा उस भगवान को" यह अर्थ कहा, और किसी ने यो कहा “कछु कछुवा (कच्छप) भग- वान को"। बालक हरिश्चन्द्र चट बोल उठे "नहीं नहीं बाबू जी, आपने कुछ कुछ जिस भगवान को छू लिया है उसका जस वर्णन करते हैं" (कछुक छुवा भगवान को) बालक की इस नई उक्ति पर सब सभास्थ लोग मोहित हो उछल पड़े और पिता ने सजल नेत्र प्यारे पुत्र का मुख चूमकर अपना भाग्य सराहा।