पृष्ठ:भारतेन्दु बाबू हरिश्चंद्र का जीवन चरित्र.djvu/६६

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भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र का जीवन चरित्न (४७) न दिया तो उस समय क्या कीजिएगा? कहावत है कि 'पसा पास का जो वक्त पर काम प्रावै।" होनहार प्रबल होती है, इसी से उस धूत की धूतता के जाल मे फंस गए। और उन्होने उसको प्रशफियाँ रखली एक ब्राह्मण युवक उनके साथ थे, वही खजाची बने । ऋण लेने का यहीं से सूत्रपात हा। फिर तो उनकी तबियत ही और हो गई, मिज़ाज मे भी गरमी आ गई। रानीगज तक तो रेल मे गए, भागे बैल गाडी और पालकी का प्रबन्ध हुना। बदवान मे पाकर किसी बात पर ये मा से बिगड खडे हुए और बोले "हम घर लौट जाते हैं। इस पर लोगो ने समझा कि इनके पास तो कुछ है नहीं तो फिर ये जायेंगे कैसे? यह सोच कर लोगो ने उनकी उपेक्षा की। बस चट प्राप उन ब्राह्मण देवता को साथ लेकर चल खडे हुए, जिन्हें उन्होने अशर्फी का खजाची बनाया था। बाजार मे आकर एक अशर्फी भुनाई और स्टेशन पर जा पहुँचे । यह समाचार जब छोटे भाई बाबू गोकुलचन्द्र को मिला तब वह सजल-नेत्र स्टेशन पर जाकर भाई से लिपट गए। तब तो हरिश्चन्द्र का स्नेहमय हृदय सम्हल न सका, उसमे भ्रातृस्नेह उछल पडा, दोनो भाई गले लग कर खूब रोए, फिर दोनो डेरे पर लौट आए। लौट तो प्राए पर उसी समय से इनके हृदय मे जो स्वतत्रता का स्त्रोत उमड पडा वह फिर न लौटा। धीरे धीरे दोनो प्रशफियाँ खर्च हो गई और फिर ऋण का चसका पड़ा। उन्हीं दो प्रशफियो के सूद ब्याज तथा अदला बदली मे उक्त पुश्तैनी 'नमकखार' के हाथ इनकी एक बडी हबेली जो पन्द्रह हजार रुपये से कम की नहीं है, लगी। इसी समय से इनकी रुचि गद्य-पद्य मय कविता की ओर झुकी । वह एक 'प्रवास नाटक' लिखने लगे। परन्तु अभाग्यवश वह अपूण और अप्रकाशित ही रह गया। इसी समय 'झूलत हरीचन्द जू डोल', 'हम तो मोल लए या घर के', आदि कविताएँ बनीं और इसी समय इन्होने बंगला सीखी। श्री जगन्नाथ जी के सिंहासन पर चिरकाल से भैरव-मूर्ति भोग के समय बैठाई जाती थी। मूख पडो का विश्वास था कि बिना भैरव-मूर्ति के श्री जगन्नाथ जी की पूजा सॉग हो ही नहीं सकती। इन्हें यह बात बहुत खटकी। इन्होने नाना प्रमाणो से उसका विरोध किया। निदान अन्त मे भैरव-मूर्ति को वहाँ से हटा ही छोडा तहकीकात पुरी की तहकीकात |' इसी झगडे का फल है। - - - - - -