(४८) भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र का जीवन चरित्र स्कूल का स्थापन उस यात्रा से लौटने पर इनकी रुचि कविता और देश-हित की ओर विशेष फिरी। इनको निश्चय हुआ कि बिना पाश्चात्य शिक्षा के प्रचार और मातृ- भाषा के उद्धार के इस देश का सुधार होना कठिन है। उस समय नगर मे कोई पाठशाला न थी। सरकारी पाठशाला या पादरियो की पाठशाला मे लडको को भेजना और फीस देकर पढ़ाना साधारण लोगो के लिये कठिन था। इसलिये इन्होने अपने घर पर लडको को पढाना प्रारम्भ किया। दोनो भाई मिल कर लडको को पढाते थे। फीस कुछ देनी नहीं पडती थी। पुस्तक स्लेट आदि भी बिना मूल्य ही दी जाती थी। इस कारण धीरे धीरे लडको को सख्या बढने लगी और इनका भी उत्साह बढा । तब एक अध्यापक नियुक्त कर दिया जो लडको को पढाने लगा। परन्तु थोडे ही दिनो मे लडको की इतनी सख्या अधिक हई कि सन १८६७ ई० मे नियमित रूप से "चौखम्भा स्कूल" स्थापित किया। और उसका सब भार अपने सिर रक्खा । उसमे अधिकाश लडके बिना फीस दिए पढ़ने लगे, पुस्तकादि भी बिना मूल्य वितरित होने लगी, यहाँ तक कि अनाथ लडको को खाना कपडा तक मिल जाया करता था। इस स्कूल ने काशी ऐसे नगर मे अग्रेजी शिक्षा का कैसा कुछ प्रचार किया, यह बात सव साधारण पर विदित है। पहिले यह 'अपर प्राइमरी' था, किन्तु भारतेन्दु के अस्त होने पर 'मिडिल' हा थोड़े दिन तक हाई स्कूल भी रहा परन्तु सहायता न होने से फिर मिडिल हो गया। हिन्दी उद्धार-व्रत का प्रारम्भ 'कविवचनसुधा' का जन्म मातृभाषा का प्रेम और कविता की रुचि तो बालकपन ही से इनके हृदय मे थी। अब उसके भी पूर्ण प्रकाश का समय आया। कवि, पण्डित और विद्यारसिको का समारम्भ तो दिन रात ही होता रहता था, परन्तु अब यह रुचि 'कविवचनसुधा रूप में प्रकाश रूप से प्रकुरित हुई। सन १८६८ ई० मे 'कविवचनसुधा' मासिक पत्र के आकार मे निकला। प्राचीन कवियो की कवितानो का प्रकाश ही इनका मुख्य उद्देश्य था। कबि देवकृत 'अष्टयाम', 'दीनदयाल गिरिकृत 'अनुरागबाग', चन्दकृत 'रायसा', मलिक मुहम्मदकृत 'पद्मावत', 'कबीर की साखी', 'बिहारी के