(५०) भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र का जीवन चरित्र देशभक्त उदार हरिश्चन्द्र को धन का कुछ भी मोह न था । वह उत्तमोत्तम कागज पर उत्तमोत्तम छपाई मे पुस्तकें छपवा कर नाम मात्र को मूल्य रखकर बिना मुल्य ही सहस्राधिक प्रतियॉ बॉटने लगे। उनके आगे पात्र अपात्र का विचार न था, जिसने माँगा उसने पाया जिसे कुछ भी सहृदय पाया उसे उन्होने स्वय दिया। यह प्रथा बाबू साहब की आजन्म रही । उन्होने लाखो ही रुपये पुस्तको की छपाई मे व्यय करके पुस्तके बिना मूल्य बाँट दी और इस प्रकार से हिन्दी के प्रेमियो की सृष्टि की और हिन्दी पढने वालो की संख्या बढाई। गवर्मेण्ट मान्य इसी समय आनरेरी मैजिस्ट्रेटी का नया नियम बना था। ये भी अपने और मित्रो के साथ आनरेरी मैजिस्ट्रेट (सन् १८७० ई० मे) चुने गए। फिर म्युनिसिपल कमिश्नर भी हुए। हाकिमो में इनका अच्छा मान्य होने लगा। परन्तु ये निर्भीत चित्त से यथार्थ बात कहने या लिखने में कभी चूकते न थे और इसी से दूसरे की बढती से जलने वालो को 'चुराली करने का अवसर मिलता था। इस समय भारतेश्वरी महारानी विक्टोरिया के पुत्र ड्यूक आफ एडिनबरा भारत सन्दशनाथ पाए। काशी में इसका महामहोत्सव हुआ। इस महोत्सव के प्रधान सहाय यही थे। इन के घर की सजावट की शोभा आज तक लोग सराहते हैं, स्वय ड्यूक ने इसकी प्रशसा की थी। ड्यूक को नगर दिखाने का भार भी इन्हीं पर अर्पित किया गया था। इस समय सब पण्डितो से कविता बनवा और 'सुमनो- ज्जलि' नामक पुस्तक मे छपवा कर इन्हो ने राजकुमार को समपण की थी। इस ग्रन्थ पर महाराज रीवॉ और महाराज विजयनगरम बहादुर ऐसे प्रसन्न हए थे कि इन्होने इसके रचयिता पण्डितो को बहुत कुछ पारितोषिक बाब साहब के द्वारा दिया था। इसी समय पण्डितो ने भी अपनी हार्दिक कृतज्ञता प्रकाश करने के लिये एक प्रशसापन बाबू साहब को दिया था जिस का सार मर्म यह था-- "सब सज्जन के मान को, कारन एक हरिचन्द । जिमि स्वभाव दिन रैन को, कारन एक हरिचन्द ॥'